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________________ (५८) गुणस्थानकमारोह. थोंकी प्राप्ति हो जाती है । यदि सदा काल इन संभोगों का संयोग बना रहे तो ठीक हो । बस पूर्वोक्त पौद्गलिक विषयोंमें आनन्द मानना और उनकी अभिलाषा रखना इसे ही भोगेच्छा नामक आर्त ध्यानका चतुर्थ भेद कहते हैं। भोगान्तराय कर्मके उदयसे जीवको इच्छानुसार सुखदायक साधनोंकी प्राप्ति न होनेके कारण दूसरेको राज्य ऐश्वर्य लक्ष्मी भोगता देख, देव देवेन्द्र संबन्धि सुखोंको शास्र श्रवण द्वारा जान कर उन्हें प्राप्त करनेके लिये अपने अन्तःकरणमें ऐसी इच्छा करे कि यदि ऐसे भोगोंकी सामग्री मुझे मिल जाय तो मैं भी उन भोगोंको भोग कर अपने जन्मको सफल करूँ । तपश्चर्या, संयम, व्रत नियम वगैरह करके उसके फलको अमुक वस्तुके लिये अर्पण कर देवे, अर्थात् धर्मकरणी करके उसके फलसे संसार संबन्धि सुख निमित्त निदान (नियाणा) करे तथा अपने धर्मकर्मके प्रभावसे स्वजन संबन्धि कुटुंबियोंको धनवान वैभवशाली बनानेकी इच्छा करे। स्वजन संबन्धियों या अड़ौसी पड़ौसियोंको धन संपत्तिवाले देख कर ईवश मनमें दुःखित होकर झुर झुर मरे, इत्यादिको भी भोगेच्छा नामक आर्त ध्यानका चतुर्थ भेद कहते हैं। पूर्वोक्त चार भेद सहित आर्त ध्यान समझना, अब चार भेद युक्त रौद्र ध्यानका स्वरूप लिखते हैं। .. रुद्रक्रूराशयः प्राणी, प्रणीतस्तत्वदर्शिभिः । रुद्रस्य कर्म भावो वा, रौद्रमित्यभिधीयते ॥१॥ (ज्ञानार्णव ) अर्थ-क्रूराशयखराब परिणामवाले जीवको रुद्र कहते हैं और उस रुद्र परिणामी जीवके कर्म या भाव परिणामको रौद्र कहते हैं। __ जिस तरह मदिरा पीनेसे मनुष्यकी बुद्धि विवेक शून्य हो जाती है और फिर वह मनुष्य क्रूर कार्य करनेमें ही विशेष तया
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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