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________________ (४४.) गुणस्थानकमारोह. दिनोंके लिये व्यापारको त्यागना, उसे देशसे और सर्वथा ही व्यापारका परित्याग करके धर्मकृत्यमें प्रवृत्ति करना, उसे सर्वसे अव्यापार पौषध कहते हैं। अब चौथे शिक्षा व्रतका स्वरूप लिखते हैं। चौथा शिक्षाबत अतिथिसंविभाग नामक है। जो गृहस्थी अपने घर पर अन्नोदककी सामग्री तयार होने पर प्रथम अतिथिको दान देकर पीछे आप भोजन करता है, उसे अतिथिसंविभाग नामक चौथा शिक्षा व्रत कहते हैं। अर्थात् पूर्वोक्त नियमको अतिथिसंविभाग व्रत कहते हैं । अब रही यह बात कि अतिथि किसको कहना, सो जिस महात्माने तिथि पर्व वगैरहको त्याग दिया है, उसे अतिथि कहते हैं, अर्थात् संसार संबन्धि तिथि पर्वोको त्यागनेवाला महात्मा अतिथि कहाता है । अथवा हीरा-माणक-सुवर्ण धन धान्यांदिका लोभ जिसने सर्वथा त्याग दिया है, उसे अतिथि कहते हैं। पूर्वोक्त प्रकारका अतिथि संसारको त्यागनेवाला साधु सन्त ही हो सकता है और इसके अलावे जो कोई भोजनार्थी गृहस्थके द्वार पर आता है, उसे अभ्यागत कहते हैं। पूर्वोक्त अतिथि महात्माको जो बैतालीस दोष रहित श्रेष्ट आहार विशेष भक्तिपूर्वक दिया जाता है, उसे ही अतिथिसंविभाग व्रत कहते हैं। पाँचवें गुणस्थानवाले श्रावकको चाहिये कि जिस वक्त भोजनका समय हो उस वक्त भक्तिपूर्वक सर्वविरतिधारी अतिथि साधु सन्तको निमंत्रण करके अपने घर पर लावे और यदि साधु महास्मा खुद ही अपनी इच्छासे स्वतः अपने मकान पर आ गया हो तो उसे देख शीघ्र ही उठकर उसके सन्मुख गमनादिक विनयसे पेस आवे। इसके बाद विनय तथा विवेकसे स्पर्धा, मत्सर, महत्ता, स्नेह, लिहाज, भय, दाक्षिण्यता, प्रत्युपकारकी इच्छा, माया
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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