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________________ पाँचवाँ गुणस्थान. ( ४५ ) ( कपट) विलंब, अनादर, तथा पश्चात्ताप वगैरह दानके दोषों से रहित विशुद्धमान आहार एकान्त आत्मकल्याणकी बुद्धिसे अपने हाथमें पात्र लेकर देवे, या पास खड़ा होकर अपनी स्त्री वगैरहके द्वारा दिलावे | इस प्रकारका दिया हुआ दान महाफल प्रदायक होता है । साधुको दान दिए बाद फेटावन्दन करके अपने घर से बाहर दश पाँच कदम तक साधु महात्मा के साथ जावे, बल्कि आवश्यक निर्युक्तिकी वृत्तिमें तो ऐसा लिखा है कि सामाचारी श्रावकको तो अवश्य ऐसा करना चाहिये कि पौषध व्रतको पारकर साधु सन्तको अन्नोदकका दान देकर पीछे अपना प्रत्याख्यान पारे मगर अन्य श्रावकके लिये यह उत्कृष्ट विधि न समझना । दोष रहित विशुद्ध दान मनुष्यों को मनोवांछित फलके देनेवाला होता है, अतः जहाँ तक बन सके सर्व दोषों रहित दान देना चाहिये । दान संबन्धि दोष पिण्ड निर्युक्ति वगैरह ग्रंथोंसे जान लेने चाहियें | नयसे प्रत्येक के समान समझ बारह व्रतोंका विशेषार्थ ॥ पूर्वोक्त बारह व्रतोंके व्यवहार और निश्चय दो दो भेद समझने । दूसरे जीवको अपने जीवके कर उसकी हिंसा न करे उसे किसी प्रकारकी भी पीड़ा न पहुँचावे, इसे व्यवहारसे प्रथम व्रत कहते हैं और यह जीव अन्य जीवोंकी हिंसाद्वारा कर्मबन्ध करके दुःखका भोगी बनता है, अतएव आत्मा के साथ से कर्मादिकका वियोग करना योग्य है । तथा यह आत्मा अनेक स्वाभाविक गुणवाली है, अतः हिंसादिकके द्वारा कर्म ग्रहण करनेका इसका धर्म नहीं है । इस प्रकार ज्ञानबुद्धिसे हिंसाका त्यागरूप आत्मगुणको ग्रहण करनेका निश्चय करना, इसे निश्चय नयकी अपेक्षा प्रथम व्रत कहते हैं ।
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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