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________________ गुणस्थानक्रमारोह. कोपादिकारण उपस्थित होनेपर भी क्रोधाभावरूप प्रशम, सिद्धिरूप मन्दिरमें चढ़नेके लिए सोपानके समान सम्यग्ज्ञानादि में उत्साहरूपजो मोक्षपदका अभिलाष है, तद्रूप संवेग, अत्यन्त कुत्सित संसार कारागारसे निकलनेमें दरवाजेके समान वैराग्यरूप निर्वेद, श्रीसर्वज्ञदेवप्रणीत समस्त भावोंकी अस्तित्वबुद्धिरूप आस्तिक्य, ये पूर्वोक्त लक्षणवाले गुण जिस जीवके हृदयमें निवास करते हैं, वह जीव सम्यक्त्वसे विभूषित कहा जाता है । अर्थात् पूर्वोक्त गुणयुक्त मनुष्य सम्यक्त्वधारी होता है। . अब सम्यग्दृष्टी जीवकी गति बताते हैं- क्षायोपशमिको दृष्टिः, स्यान्नरामरसंपदे । क्षायिकीतु भवे तत्र त्रितुर्ये वा विमुक्तये ॥ २२ ॥ श्लोकार्थ-क्षायोपशमिक सम्यक्त्ववाला जीव कालकरके मनुष्य या देव संबन्धि संपदाको प्राप्त करता है किन्तु क्षायिक सम्यक्त्ववाला जीव तो उसी भव में अथवा चतुर्थ भव में मुक्ति प्राप्त करता है ॥ व्याख्या-जीवके परिणाम विशेषको करण कहते हैं । वह करण तीन प्रकारके होते हैं। १ यथाप्रवृत्ति करण, २ अपूर्व करण, ३ अनिवृत्ति करण । ये तीन करण कहे जाते हैं। जिस प्रकार किसी पर्वतकी नदीमें पानीके प्रवाहसे रखड़ता हुआ पाषाणखण्ड गोलाकार होजाता है, उसी न्यायसे यह जीव भी अनादिकालसे संसारमें रखड़ता हुआ आयु कर्मको वर्जकर सातों ही कर्मोंकी स्थिति को कुछ कम एक कोटामोटी सागरोपम प्रमाणवाली करता हुआ जिस अध्यवसायके द्वारा ग्रंथीके समीप तक
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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