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________________ चौथा गुणस्थान. (१७) आता है, उस अध्यवसाय विशेषको ही यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। यथाप्रवृत्तिकरण करके पूर्व कालमें न प्राप्त हुआ हो, ऐसे अध्यवसायके द्वारा जो सघन रागद्वेष परिणतिरूप ग्रंथीको भेदन करता है, उस अध्यवसाय विशेषको दूसरा अपूर्वकरण कहते हैं। जिस अनिवृत्तक अध्यवसाय विशेषके द्वारा ग्रंथी भेदन करके. परमानन्द देनेवाले सम्यक्त्वगुणको प्राप करता है, उसे अनिवत्तिकरण कहते हैं। सम्यक्त्वगुणकी प्राप्तिमें रुकावट करनेवाला अनादिकालसे आत्माके साथ सघन राग द्वेषरूप एक पुद्गल पुंज (सघन कर्मसमूह) होता है, उसीको ग्रंथी कहते हैं। उस ग्रंथीको भव्य जीव अपूर्वकरणद्वारा भेदन करके अनिवृत्तिकरणमें सम्यक्त्वगुणको प्राप्त करता है। किन्तु ग्रंथी भेदन किये बिना जीवको सम्यत्त्वगुण प्राप्त नहीं होता। श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणमहाराज फरमाते हैं____ अन्तिम कोडाकोडी, सव्वकम्माणमाउवज्जाणं । पलिआसंखिज्जइमे, भागे खीणे हबइ गंठी ॥१॥ अर्थ-आयुकर्मको वर्ज कर बाकीके सातों ही कर्मोंकी अन्तिम स्थिति जब एक कोड़ा कोड़ी सागरकी रहती है, तब उसमें से पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग क्षीण होनेपर ग्रंथी भेदन होती है । पूर्वोक्त जो तीन करण बताये हैं। उनमें से प्रथम करण तो ग्रंथी भेदनके पूर्वमें ही होता है । दूसरा ग्रंथी भेदन करते समय होता है, अर्थात् दूसरे अपूर्व करण नामा करणमें यह जीव दुर्भेद्य कर्कश निबिड़ रागद्वेष परिणतिरूप ग्रंथीको भेदन करता है। तीसरा करण ग्रंथी भेदनके बाद सम्यक्त्वकी प्राप्ति होनेसे होता है । इस बातकों भली भाँति समझानेके लिए यहाँ पर एक दृष्टान्त दिया जाता है । जिस तरह कोई तीन आदमी किसी एक नगरको जा रहे हैं। किन्तु पर्वतकी अटवीका भयानक मार्ग होनेके कारण उन्हें चलते चलते
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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