SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ....चौथा गुणस्थान......... १५ ). नियम प्रत्याख्यान धारण करनेको असमर्थ है, अर्थात चतुर्थ गुणस्थानीय प्राणी किसी प्रकार भी शारीरिक नियम प्रत्याख्यान नहीं धारण कर सकता। अब चतुर्थ गुणस्थानकी स्थिति कहते हैंउत्कृष्टास्य त्रयस्त्रिंशत्सागरासादिकास्थितिः । तदर्द्धपुद्गलावर्तभवैभव्यैरवाप्यते ॥ २०॥ श्लोकार्थ-इसकी उत्कृष्टस्थिति कुछ अधिक ३३ तेतीस सागरोपमकी है और जिनका अर्धपुद्गल परावर्त बाकी संसार रहा हो उन्हीं भव्यजीवोंको यह गुणस्थान प्राप्त होता है। व्याख्या-इस अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थानकी उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक ३३ तेतीस सागरोपमकी है, यह ३३ सागरोपमकी स्थिति सर्वार्थसिद्धविमानसंबन्धि समझना और जो अधिक कही है, वह देवलोकसे चक्कर मनुष्यभवसंबन्धि समझना । इसी प्रकार इस गुणस्थानकी उत्कृष्टस्थिति कुछ अधिक तेतीस सागरोपमकी हो सकती है अन्यथा नहीं। इस अविरति सम्यग्दृष्टिनामा चतुर्थ गुणस्थानको वे ही भव्यजीव प्राप्त कर सकते हैं कि जिनका अर्ध पुद्गल परावर्त्त मात्रकाल शेष संसार रहा हो ॥ अब सम्यग्दृष्टिके गुण बताते हैंकृपाप्रशमसंवेगनिर्वेदास्तिक्यलक्षणाः। गुणा भवन्ति यच्चित्ते, स स्यात्सम्यक्त्वभूषितः ॥२१॥ श्लोकार्थ-कृपा, प्रशम, संवेग, निर्वेद, आस्तिक्यलक्षण, ये पूर्वोक्त गुण जिसके चित्तमें हैं, वह मनुष्य सम्यक्त्वसे विभूषित होताहै। - व्याख्या-दुखी जीवोंके दुःखको दूर करनेकी इच्छारूप कपा,
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy