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________________ (१४ ) गुणस्थानकमारोह. माप्त हो सकती है। एक तो स्वभावसे और दूसरे गुरु आदिके उपदेशद्वारा। अब अपिरति सम्यग्दृष्टिपनेको कथन कहते हैंद्वितीयानां कषायाणामुदयावतवर्जितम् । सम्यक्त्वं केवलं यत्र तच्चतुर्थ गुणास्पदम् ॥१९॥ श्लोकार्थ-दूसरे कषायोंके उदय होने से व्रतवर्जित केवल सम्यक्त्वमात्र ही जहाँपर होता है, उसे चतुर्थ गुणस्थान कहते हैं । व्याख्या-प्रथमकी अनन्तानुगन्धि चौकड़ीको वर्जकर दूसरे भेदवाले अप्रत्याख्यानीय क्रोध-मान-माया-लोभरूप कषायों के उदय होनेसे व्रत नियम रहित केवल सम्यक्त्वमात्र ही जहॉपर होता है, उसे चतुर्थ गुणस्थान कहते हैं । अर्थात जिसमें नियम उदय नहीं आता और केवल सम्यक्त्वमात्र ही होता है, उसे अविरति सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान कहते हैं । चतुर्थ गुणस्थानमें व्रत प्रत्याख्यान क्यों नहीं उदय आता? इस बातको दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं-जिसपकार कोई एक मनुष्य न्यायोत्पन्न संपदायुक्त श्रेष्ठ भोगकुलमें पैदा होकर भी द्यूतादि व्यसनों से दूषित है । एक दिन उस आदमीसे व्यसनी होनेके कारण कुछ अपराध हो गया । अपराध जाहिर होनेसे राजकीयपुरुष कोतवाल वगैरह लोगोंने उसे पकड़लिया। अब वह कोतवाल लोगोंके हाथमें आया हुआ आदमी अपने किये हुए कुत्सित कर्मको जानताहुआ भी अपने कुलकी सुखसंपदाको इच्छता है, मगर उन कोतवाल सुभट लोगोंसे छूटनेको असमर्थ है । बस ठीक उसी प्रकार यह जीव भी अविरतिरूप कुत्सित कर्मको जानता हुआ विरतिरूप सुखसौन्दर्यको इच्छता है। किन्तु राजकीय मुभटोंके समान अपत्याख्यानीयादि कषायोंके वशहोकर विरति
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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