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गुणस्थानक्रमारोह.
हैं वह मनुष्य शुभ कर्म रूप स्वर्णकी तथा अशुभ कर्मरूप लोहेकी शंखलाओंसे अपनी आत्माको बाँधता रहता है, इसी लिए शास्त्रकारोंका यह फरमान है कि निद्रामें पड़े रहना अच्छा, मू में पड़े रहना अच्छा और पागल पनमें रहना अच्छा परन्तु आतं, रौद्र ध्यानसे खराब लेश्याजन्य संकल्प विकल्पों सहित मन अच्छा नहीं। अतः पूर्वोक्त विकल्पोंसे रहित होने के कारण उस महात्माका मन सर्व प्रकारकी आकांक्षाओंसे रहित होता है । उस योगीका यह उद्यम केवल आत्मरूपको प्रगट करनेके लिए ही होता है, क्योंकि आत्म स्वरूपकी प्राप्ति करने वाले ध्यानी पुरुषको ही योगकी सिद्धि होती है, शास्रमें कहा है कि-उत्साहानिश्चया?र्यात्संतोषातत्त्वदर्शनात् । मुनेर्जनपदत्यागात् , षड्भिर्योगः प्रसिद्धयति । अर्थ-उत्साहसे, निश्चयसे, धैर्यसे, संतोषसे, तत्वका दर्शन करनेसे तथा जनपद-देशका त्याग करनेसे, इन छहोंके द्वारा मुनिराजको योगकी सिद्धि होती है । पूर्वोक्त योगी प्राणायाम द्वारा अपने प्राण वायुका निरोध करता है, इस लिए अब प्राणायामका स्वरूप लिखते हैं
अपानदार मार्गण, निस्सरन्तं यथेच्छया। निरुध्योदवं प्रचाराप्ति, प्रापयत्यनिलं मनिः॥५४॥
श्लोकार्थ-अपान मार्गद्वारा स्वेच्छापूर्वक निकलते हुए वायुको संकुचित करके मुनि ऊपरको प्राप्त करता है। - व्याख्या-ध्यानी महात्मा गुदा मार्गसे स्वेच्छापूर्वक निकलते हुए पवनको अपनी शक्तिसे संकुचित करके दशवें द्वारमें चढ़ाता है, अर्थात् मूल बन्धकी युक्तिसे गुदा मार्गसे निकलते हुए प्राणवायुको रोक कर ऊपरको चढ़ाता है। पैरोंके पाणि भागसे गुदा और पुरुष चिन्हके मध्य भागको दवा कर अपान