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________________ आठवाँ गुणस्थान. (१३३) विकल्पवागुरा-जालादूरोत्सारित-मानसः। संसारोच्छेदनोत्साहो, योगीन्द्रो ध्यातुमर्हति ॥५३॥ __श्लोकार्थ-निश्चल पर्यक आसन करके, नासिकाके अग्र भाग पर दृष्टि लगाकर अर्ध विकसित कमलके समान थोड़ीसी खुली हुई आँखें रखकर, विकल्परूप वागुराजालसे मनको दूर करके और संसारको उच्छेद करनेमें उत्साहित होकर योगीन्द्र ध्यान करने के योग्य होता है । ___व्याख्या-व्यवहार नयकी अपेक्षासे क्षपक महात्मा निबिड़ दृढ पर्यक आसन करके ध्यान करनेके योग्य होता है, क्योंकि दृढ आसन ही ध्यानका प्रथम प्राण कहा जाता है। पर्यक आसन जंघाओंके अधो भागमें पैर ऊपर पैर चढ़ानेसे होता है। कितने एक योगी पुरुष इसे सिद्धासन भी कहते हैं। कितने एक योगियोंका मत है कि जिस आसनसे चित्तको स्थिरता प्राप्त हो वही आसन श्रेष्ठ है, योगियोंको अमुक ही आसन होना चाहिये यह कोई नियम नहीं। जब योगी महात्मा ध्यानारूढ होता है तब उसकी मुद्रा बड़ी ही अद्भुत होती है। नासिकाके अग्र भाग पर निश्चल दृष्टी लगी हुई होती है, अर्ध विकसित कमलके समान नेत्रोंमें प्रसन्नता भाव भरा हुआ होता है तथा उस दशामें उस योगीका अन्तःकरण संकल्प विकल्पोंसे रहित होकर परम पवित्र होता है, क्योंकि संकल्प विकल्प रूप व्यापारसे ही प्राणी अपनी आत्माको कर्मके दलियोंसे लिप्त करता है, शास्त्रमें भी फरमाया है कि-अशुभा वा शुभा वापि, विकल्पा यस्य चेतसि । स्वं बनात्ययः स्वर्ण बन्धनाभेन कर्मणा ॥१॥ वरं निद्रा वरं मूर्छा, वरंविकलतापि वा । नत्वात रौद्र दुर्लेश्या विकल्पाकुलितं मनः॥२॥ अर्थ-जिस मनुष्यके अन्तःकरणमें शुभाशुभ विकल्प उत्पन्न होते
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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