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पद्मनन्दि- पञ्चविंशतिः
795) अगोचरो वासरकृन्निशा कृतोर्जनस्य यश्चेतसि वर्तते तमः । विभिद्यते वागधिदेवते त्वया त्वमुत्तमज्योतिरिति प्रणीयसे ॥ २० ॥ 796 ) जिनेश्वरस्वच्छसरः सरोजिनी त्वमङ्गपूर्वादिसरोजराजिता ।
गणेश सव्रज सेविता सदा करोषि केषां न मुदं परामिह ॥ २१ ॥ 797) परात्मतत्त्वप्रतिपत्तिपूर्वकं परं पदं यत्र सति प्रसिद्ध्यति ।
[795 : १५-२०
कियत्ततस्ते स्फुरतः प्रभावतो नृपत्वसौभाग्यवराङ्गनादिकम् ॥ २२ ॥ 798) त्वदङ्घ्रिपद्मद्वयभक्तिभाविते तृतीयमुन्मीलति बोधलोचनम् ।
गिरामधीशे सह केवलेन यत् समाश्रितं स्पर्धमिवेक्षते ऽखिलम् ॥ २३ ॥
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अत्र जन्मनि । अपरे भवे अपरजन्मनि फलसि । तैः कल्पवृक्षादिभिः । कथम् उपमीयसे ॥ १९ ॥ भो वागधिदेवते भो मातः । त्वया तमः विभिद्यते दूरीक्रियते । यत्तमः जनस्य चेतसि वर्तते । यत्तमः । वासरकृन्निशाकृतोः सूर्याचन्द्रमसोः । अगोचरः अगम्यः । इति हेतोः त्वम् । उत्तमज्योतिः । प्रगीयसे कथ्यसे ॥ २० ॥ भो देवि । त्वम् । इह लोके । केषां जीवानाम् । परां मुदं हर्ष न करोषि । अपि तु सर्वेषां प्राणिनां मुदं करोषि । किंलक्षणा त्वम् । जिनेश्वरम्वच्छसरोवरस्य सरोजिनी कमलिनी वर्तसे । पुनः किंलक्षणा त्वम् | अङ्गपूर्वादिसरोजकमलानि तैः राजिता शोभिता । पुनः किंलक्षणा त्वम् । गणेश गणधर देव-हंसव्रज-समूहैः सेविता । सदाकाले ॥ २१ ॥ ततः कारणात् । ते तत्र । स्फुरतः प्रभावतः सकाशात् । नृपत्वसौभाग्यवराङ्गनादिकं कियन्मात्रम् । यत्र तव प्रभावे सति परं पदं प्रसिद्ध्यति । किंलक्षणं पदम् । परात्मतत्त्वप्रतिपत्तिपूर्वकं भेदज्ञानपूर्वकम् ॥ २२ ॥ भो देवि । त्वदङ्घ्रिपद्मद्वयभक्तिभाविते नरे तव चरणकमलभक्तियुक्ते नरे । तृतीयं बोधलोचनं ज्ञाननेत्रम् । उन्मीलति प्रगटीभवति । यत्तव बोधलोचनम् । गिराम् अधीशे सर्वज्ञे । केवलेन सह स्पर्द्ध समाश्रितम् इव । यत्तृतीयलोचनम् । अखिल हे देवी! तू इस भवमें और परभवमें भी फल देती है । फिर भला विद्वान् मनुष्य तेरे लिये इनकी उपमा कैसे देते हैं ? अर्थात् तू इनकी उपमाके योग्य नहीं है- उनसे श्रेष्ठ है ॥ १९ ॥ हे वागधिदेवते ! लोगोंके चित्तमें जो अन्धकार ( अज्ञान ) स्थित है वह सूर्य और चन्द्रका विषय नहीं है, अर्थात् उसे न तो सूर्य नष्ट कर सकता है और न चन्द्र भी । परन्तु हे देवी ! उसे ( अज्ञानान्धकारको ) तू नष्ट करती है । इसलिये तुझे 'उत्तमज्योति' अर्थात् सूर्य-चन्द्रसे भी श्रेष्ठ दीप्तिको धारण करनेवाली कहा जाता है ॥ २० ॥ हे सरस्वती ! तुम जिनेन्द्ररूप सरोवर की कमलिनी होकर अंग-पूर्वादिरूप कमलोंसे शोभायमान तथा निरन्तर गणधररूप हंसों के समूहसे सेवित होती हुई यहां किन जीवोंके लिये उत्कृष्ट हर्षको नहीं करती हो ? अर्थात् सब ही जनोंको आनन्दित करती हो ॥ २१ ॥ हे देवी ! जहां तेरे प्रभावसे आत्मा और पर ( शरीरादि ) का ज्ञान हो जाने से प्राणीको उत्कृष्ट पद ( मोक्ष ) सिद्ध हो जाता है वहां उस तेरे दैदीप्यमान प्रभावके आगे राजापन, सुभगता एवं सुन्दर स्त्री आदि क्या चीज हैं ? अर्थात् कुछ भी नहीं है ॥ विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि जिनवाणीकी उपासनासे जीवको हित एवं अहितका विवेक उत्पन्न होता है और इससे उसे सर्वोत्कृष्ट मोक्षपद भी प्राप्त हो जाता है । ऐसी अवस्थामें उसकी उपासना से राजपद आदिके प्राप्त होने में भला कौन-सी कठिनाई है ? कुछ भी नहीं ॥ २२ ॥ हे वचनोंकी अधीश्वरी ! जो तेरे दोनों चरणोंरूप कमलोंकी भक्तिसे परिपूर्ण है उसके पूर्ण श्रुतज्ञानरूप वह तीसरा नेत्र प्रगट होता है जो कि मानो केवलज्ञानके साथ स्पर्धाको ही प्राप्त हो करके उसके विषयभूत समस्त विश्वको देखता है || विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि जिनवाणीकी आराधनासे द्वादशांगरूप पूर्ण श्रुतका ज्ञान प्राप्त होता है जो विषयकी अपेक्षा केवलज्ञानके ही समान है । विशेषता दोनों में केवल यही है कि जहां श्रुतज्ञान उन सब पदार्थोंको परोक्ष
१ शये ।