________________
- 794 : १५-१९]
१५. श्रुतदेवतास्तुतिः
791 ) गिरा नरप्राणितमेति सारतां कवित्ववक्तृत्वगुणेन सा च गीः । इदं द्वयं दुर्लभमेव ते पुनः प्रसादलेशादपि जायते नृणाम् ॥ १६ ॥ 792 ) नृणां भवत्संनिधिसंस्कृतं श्रवो विहाय नान्यद्धितमक्षयं च तत् । भवेद्विवेकार्थमिदं परं पुनर्विमूढतार्थं विषयं स्वमर्पयत् ॥ १७ ॥ 793 ) कृतापि ताल्वोष्ठपुटादिभिर्नृणां त्वमादिपर्यन्त विवर्जितस्थितिः ।
इति त्वयापीदृशधर्मयुक्तया स सर्वथैकान्तविधिविंचूर्णितः ॥ १८ ॥ 794 ) अपि प्रयाता वशमेकजन्मनि धुधेनु चिन्तामणिकल्पपादपाः ।
फलन्ति हि त्वं पुनरत्र वा परे भवे कथं तैरुपमीयसे बुधैः ॥ १९ ॥
२२३
1
लोकत्रितयस्य । परमार्थदर्शने त्वं लोचनम् ॥ १५ ॥ भो देवि । तव गिरा वाण्या कृत्वा । नरस्य प्राणितं जीवितम् । सारतां सफलताम् । एति गच्छति । च पुनः । सा गीः । कवित्ववक्तृत्वगुणेन श्रेष्ठा वर्तते । इदं द्वयं कवित्व - वक्तृत्वम् । दुर्लभम् एव । पुनः । ते तव । प्रसादात् प्रसादलेशात् अपि नृणां द्वयं जायते ॥ १६ ॥ नृणां पुरुषाणाम् । भो देवि । भवत्संनिधिसंस्कृतम् । तव नैकट्यं तत्र समीपम् । श्रवः तव श्रवणम् । विहाय त्यक्त्वा । अन्यत् श्रवणम् । अक्षयम् । हितं हितकारकं न । तत्तस्मात्कारणात् । तत्र श्रवणेन इदं विवेकार्थं भवेत् । पुनः परम् अन्यत् श्रवणम् । विमूढ़तार्थम् । खम् आत्मानं विषयं जडत्वगोचरम् | अर्पयत् ददत् ॥ १७ ॥ इति अमुना प्रकारेण । त्वं नृणां तात्वोष्ठपुटादिभिः कृतापि । भो देवि । त्वम् आदि-पर्यन्तअन्तविवर्जित-रहित- स्थितिः वर्तसे । त्वया ईदृशधर्मयुक्तया आद्यन्तरहितया । स सर्वथा एकान्तविधिः विचूर्णितः स्फेटितः ॥१८॥ भो देवि । धेनुचिन्तामणिकल्पपादपाः कामधेनुचिन्तामणिरत्न कल्पवृक्षाः । वशं प्रयाताः । एकजन्मनि फलन्ति । पुनः त्वम् । भी विद्वानोंके द्वारा अन्धा ( अज्ञान ) ही समझा जाता है, इसीलिये तीनों लोकों के प्राणियोंके लिये यथार्थ तत्त्वका दर्शन ( ज्ञान ) करानेमें तुम अनुपम नेत्रके समान हो ॥ १५ ॥ जिस प्रकार वाणीके द्वारा मनुष्यों का जीवन श्रेष्ठताको प्राप्त होता है उसी प्रकार वह वाणी भी कवित्व और वक्तृत्व गुणों के द्वारा श्रेष्ठको प्राप्त होती है । ये दोनों ( कवित्व और वक्तृत्व ) यद्यपि दुर्लभ ही हैं, तो भी हे देवी! तेरी थोड़ी-सी भी प्रसन्नतासे वे दोनों गुण मनुष्यों को प्राप्त हो जाते हैं ॥ १६ ॥ हे सरस्वती ! तुम्हारी समीपता से संस्कारको प्राप्त हुए श्रवण ( कान ) को छोड़कर मनुष्योंका दूसरा कोई अविनश्वर हित नहीं है । तुम्हारी सभी पतासे संस्कृत यह श्रवण विवेकका कारण होता है तथा अपनेको विषयकी ओर प्रवृत्त करानेवाला दूसरा श्रवण अविवेकका कारण होता है ॥ विशेषार्थ - अभिप्राय इसका यह है कि जो मनुष्य अपने कानोंसे जिनवाणीका श्रवण करते हैं उनके कान सफल हैं। इससे उनको अविनश्वर सुखकी प्राप्ति होती है । परन्तु जो मनुष्य उन कानोंसे जिनवाणीको न सुनकर अन्य रागवर्धक कथाओं आदिको सुनते हैं वे विवेकसे रहित होकर विषयभोग में प्रवृत्त होते हैं और इस प्रकार से अन्तमें असह्य दुखको भोगते हैं ॥ १७ ॥ हे भारती ! यद्यपि तू मनुष्योंके तालु और ओष्ठपुट आदिके द्वारा उत्पन्न की गई है तो भी तेरी स्थिति आदि और अन्तसे रहित है, अर्थात् तू अनादिनिधन है । इस प्रकारके धर्म ( अनेकान्त ) से संयुक्त तूने सर्वथा एकान्तविधानको नष्ट कर दिया है । विशेषार्थ - वाणी कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य भी है । वह वर्ण-पद-वाक्यरूप वाणी चूंकि ताल और ओष्ठ आदि स्थानोंसे उत्पन्न होती है अत एव पर्यायस्वरूपसे अनित्य है । साथ ही द्रव्यस्वरूपसे चूंकि उसका विनाश सम्भव नहीं है अत एव द्रव्यस्वरूपसे अथवा अनादिप्रवाह से वह नित्य भी है । इस प्रकार अनेकान्तस्वरूप वह वाणी समस्त एकान्त मतों का निराकरण करती है ॥१८॥ कामधेनु, चिन्तामणि और कल्पवृक्ष ये अधीनताको प्राप्त होकर एक जन्ममें ही फल देते हैं । परन्तु
१ श चापरे । २श प्रसादात् प्रसादलेशात् ।