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२२२ पमनन्दि-पञ्चविंशतिः
[788:१५-१३788 ) त्वयि प्रभूतानि पदानि देहिनां पदं तदेकं तदपि प्रयच्छसि ।
समस्तशुक्लापि सुवर्णविग्रहा त्वमत्र मातः कृतचित्रचेष्टिता ॥ १३ ॥ 789 ) समुद्रघोषाकृतिरह ति प्रभौ यदा त्वमुत्कर्षमुपागता भृशम् ।
अशेषभाषात्मतया त्वया तदा कृतं न केषां हृदि मातरद्भुतम् ॥ १४॥ 790) सचक्षुरप्येष जनस्त्वया विना यदन्ध एवेति विभाव्यते बुधैः ।
तदस्य लोकत्रितयस्य लोचनं सरस्वति त्वं परमार्थदर्शने ॥ १५॥ श्रयम् । विधाय कृत्वा । मोक्षपदं श्रायन्ति' प्राप्नुवन्ति । यत् मानवः नरः । तमस्तते तमोव्याप्ते गृहे प्रदीपम् आश्रित्य । ईप्सितं वाञ्छितं वस्तु । लमेत प्राप्नोति ॥ १२॥ भो मातः । अत्र जगति । त्वं कृतचित्रचेष्टिता वर्तसे । त्वयि विषये। प्रभूतानि पदानि तदपि देहिनां जीवानां तदेकं पदं प्रयच्छसि ददासि । किंलक्षणा त्वम् । समस्तशुलापि सुवर्णविग्रहा सुष्टं[छु ] वर्ण सुवर्ण शरीरं यस्याः सा । व्यवहारेण सुवर्णमयच्छविशरीरा इत्यर्थः ॥ १३ ॥ भो मातः । यदा काले त्वम् । अर्हति प्रभी सर्वज्ञे । भृशम् अत्यर्थम् । उत्कर्षम् उपागता उत्कर्षता प्राप्ता। किंलक्षणा त्वम् । समुद्रघोषाकृतिः । तदा त्वया अशेषभाषात्मतया सर्वभाषास्वरूपेण । केषां जीवानां हृदि अद्भुतम् आश्चर्य न कृतम् । अपि तु सर्वेषां हृदि आश्चर्य कृतम् ॥ १४ ॥ भो सरखति । यत् एष जनः । त्वया विना । सचक्षुरपि नेत्रयुक्तोऽपि जन: बुधैः अन्ध इति विभाव्यते कथ्यते । तत्तस्मात्कारणात् । अस्य महामुनि जब पहिले तेरा अवलम्बन लेते हैं तब कहीं उस मोक्षपदका आश्रय ले पाते हैं। ठीक भी हैमनुष्य अन्धकारसे व्याप्त घरमें दीपकका अवलम्बन लेकर ही इच्छित वस्तुको प्राप्त करता है ॥ १२ ॥ हे माता ! तुम्हारे विषयमें प्राणियोंके बहुत-से पद हैं, अर्थात् प्राणी अनेक पदोंके द्वारा तुम्हारी स्तुति करते हैं, तो भी तुम उन्हें उस एक ही पद ( मोक्ष )को देती हो। तुम पूर्णतया धवल हो करके भी उत्तम वर्णमय (अकारादि अक्षर स्वरूप ) शरीरवाली हो । हे देवी! तुम्हारी यह प्रवृत्ति यहां आश्चर्यको उत्पन्न करती है ॥ विशेषार्थ- सरस्वतीके पास मनुष्योंके बहुत पद हैं, परंतु वह उन्हें एक ही पद देती है; इस प्रकार यद्यपि यहां शब्दसे विरोध प्रतीत होता है, परन्तु यथार्थतः विरोध नहीं है। कारण यह कि यहां 'पद' शब्दके दो अर्थ हैं- शब्द और स्थान । इससे यहां वह भाव निकलता है कि मनुष्य बहुत-से शब्दोंके द्वारा जो सरस्वतीकी स्तुति करते हैं उससे वह उन्हें अद्वितीय मोक्षपदको प्रदान करती है। इसी प्रकार जो सरस्वती पूर्णतया धवल (श्वेत ) है वह सुवर्ण जैसे शरीरवाली कैसे हो सकती है ? यह भी यद्यपि विरोध प्रतीत होता है, परन्तु वास्तवमें विरोध यहां कुछ भी नहीं है। कारण यह कि शुक्ल शब्दसे अभिप्राय यहां निर्मलका तथा वर्ण शब्दसे अभिप्राय अकारादि अक्षरोंका है । अत एव भाव इसका यह हुआ कि अकारादि उत्तम वर्णो रूप शरीरवाली वह सरस्वती पूर्णतया निर्मल है ॥ १३ ॥ हे माता! जब तुम भगवान् अरहन्तके विषयमें समुद्रके शब्दके समान आकारको धरण करके अतिशय उत्कर्षको प्राप्त होती हो तब समस्त भाषाओंमें परिणत होकर तुम किन जीवोंके हृदयमें आश्चर्यको नहीं करती हो? अर्थात् सभी जीवोंको आश्चर्यान्वित करती हो ॥ विशेषार्थ- जिनेन्द्र भगवान्की जो समुद्रके शब्द समान गम्भीर दिव्यध्वनि खिरती है यही वास्तवमें सरस्वतीकी सर्वोत्कृष्टता है । इसे ही गणधर देव बारह अंगोंमें ग्रथित करते हैं । उसमें यह अतिशयविशेष है कि जिससे वह समुद्रके शब्दके समान अक्षरमय न होकर भी श्रोताजनको अपनी अपनी भापास्वरूप प्रतीत होती है और इसीलिये उसे सर्वभाषात्मक कहा जाता है ॥ १४ ॥ हे सरस्वति ! चूंकि यह मनुष्य तुम्हारे विना आंखोंसे सहित होकर
"श आश्रयन्ति । २श मुष्टं सुवण मुटु वर्ण ।