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-741:१३-६०] १३. ऋषभस्तोत्रम्
२१३ 737 ) धरइ परमाणुलीलं जग्गब्मे तिहुयणं पितं पिणहं।
अंतो णाणस्स तुह इयरस्स ण एरिसी महिमा ॥ ५६ ॥ 738 ) भुवणत्थुय थुणइ जइ जए सरस्सई संतयं तुहं तह वि ।
ण गुणतं लहइ तहिं को तरइ जडो जणो अण्णो ॥ ५७ ॥ 739 ) खयरि व्व संचरंती तिहुयणगुरु तुह गुणोहगयणम्मि ।
दूरं पि गया सुइरं कस्स गिरा पत्तपेरंता॥ ५८॥ 740 ) जत्थ असक्को सक्को अणीसरो ईसरो फणीसो वि।
तुह थोत्ते तत्थ कई अहममई तं खमिजासु ॥ ५९॥ 741 ) तं भव्वपोमणंदी तेयणिही सरु ध्व णिहोसो।
मोहंधयारहरणे तुह पाया मम पसीयंतु ॥ ६०॥ यय आकाशस्य गर्ने मध्ये त्रिभुवनेमपि परमाणुलीला मर्यादी धरति। तत् नभः तव ज्ञानस्य अन्तः मध्ये परमाणुलीलां धरति। इतरस्य कुदेवस्य ईदृशी महिमा न ॥ ५६ ॥ भो भुवनस्तुत्य । जगत्रये सरस्वती सततं स्तौति तव स्तुतिं करोति । तथापि तव गुणान्तं पार न लभते । तस्मिन् तव गुणसमुद्रे अन्यः जडः मूढः कः तरति । अपि तु न कोऽपि ॥ ५७ ॥ भो त्रिभुवनगुरो। तव गुणौघगगने आकाशे । कस्य गी: वाणी । प्राप्तपर्यन्ता । सुचिरं चिरकालम् । संचरन्ती गच्छन्ती दूरं गता अपि । का इव । खचरी इव पक्षिणी इव। अपि तु न कस्यापि गीः प्राप्तपर्यन्ता॥५८॥ भो देव। यत्र तव स्तोत्रे। शकः इन्द्रः अशक्तः असमर्थः ।
गीशोऽपि नागाधिपोऽपि स्तोतुम् अनीश्वरः असमर्थः । तस्मिन् स्तोत्रे अहं कविः अमतिः मतिरहितः। तदपराधं क्षमस्व ॥ ५९ ॥ भो देव। तव पादौ मम प्रसीदताम् । किंलक्षणः त्वम्। भव्यपद्मनन्दी। पुनः किंलक्षणः त्वम् । तेजोनिधिः । पुनः किंलक्षणः त्वम् । सूर्यवत् निर्दोषः । क । मोहंधयारहरणे मोहान्धकारहरणे ज्ञानसूर्यः ॥ ६ ॥ इति ऋषभस्तोत्रम् ॥ १३॥ परमाणु जैसा प्रतीत होता है। ऐसी महिमा ब्रह्मा-विष्णु आदि किसी दूसरेकी नहीं है ॥ ५६ ॥ हे भुवनस्तुत ! यदि संसारमें तुम्हारी स्तुति सरस्वती भी निरन्तर करे तो वह भी जब तुम्हारे गुणोंका अन्त नहीं पाती है तब फिर अन्य कौन-सा मूर्ख मनुष्य उस गुणसमुद्रके भीतर तैर सकता है ? अर्थात् आपके सम्पूर्ण गुणोंकी स्तुति कोई भी नहीं कर सकता है ॥५७॥ हे त्रिभुवनपते ! आपके गुणसमूहरूप आकाशमें पक्षिणी ( अथवा विद्याधरी) के समान चिर कालसे संचार करनेवाली किसीकी वाणीने दूर जाकर भी क्या उसके ( आकाशके, गुणसमूहके ) अन्तको पाया है ? अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार पक्षी चिर काल तक गमन करके भी आकाशके अन्तको नहीं पाता है उसी प्रकार चिर काल तक स्तुति करके भी किसीकी वाणी आपके गुणोंका अन्त नहीं पा सकती है ।। ५८ ॥ हे भगवन् ! जिस तेरे स्तोत्रके विषयमें इन्द्र अशक्त ( असमर्थ ) है, ईश्वर ( महादेव ) अनीश्वर (असमर्थ ) है, तथा धरणेन्द्र भी असमर्थ है; उस तेरे स्तोत्रके विषयों में निर्बुद्धि कवि [ कैसे ] समर्थ हो सकता हूं! अर्थात् नहीं हो सकता । इसलिये क्षमा करो ॥ ५९॥ हे जिन! तुम सूर्यके समान पद्मनन्दी अर्थात् भव्य जीवोंरूप कमलोंको आनन्दित करनेवाले, तेजके भण्डार
और निर्दोष अर्थात् अज्ञानादि दोषोंसे रहित (सूर्यपक्षमें-दोषासे रहित) हो । तुम्हारे पाद (चरण) सूर्यके पादों ( किरणों ) के समान मेरे मोहरूप अन्धकारके नष्ट करनेमें प्रसन्न होवें ॥ ६० ॥ इस प्रकार ऋषभस्तोत्र समाप्त हुआ ॥ १३ ॥
१क श गव्मे। २ क श णह। ३ अश तेयणिही सरुव्व, व तेयणीही इणं सरूव्व। ४क 'यस्य' नास्ति । ५क त्रिभुवनपतिः। ६श'मर्यादा' नास्ति । ७क'कवि' नास्ति ।