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[१४. जिनवरस्तवनम्] 742) दिढे तुमम्मि जिणवर सहलीलाई मज्म णयणाई ।
चित्तं गतं च लहुं अमिएणे व सिंचियं जायं ॥१॥ 743) दिढे तुमम्मि जिणवर दिट्ठिहरासेसमोहतिमिरेण ।
तह पढें जा दिटुं जहट्टियं तं मए तचं ॥२॥ 744) दिटे तुमम्मि जिणवर परमाणदेण परियं हिययं ।
मजा तहा जह मण्णे मोक्खं पिव पत्तमप्पाणं ॥३॥ 745 ) दिढे तुमम्मि जिणवर णटुं चिय मण्णिय महापावं ।
रविउग्गमे णिसाए ठाइ तमो कित्तियं कालं ॥४॥ 746) दिले तुमम्मि जिणवर सिज्झइ सो को वि पुण्णपम्भारो।
होई जणो जेण पडू इहपरलोयत्थसिद्धीणं ॥५॥ 747) दिटे तुमम्मि जिणवर मण्णे तं अप्पणो सुकयलाहं ।
होही सो जेणासरिससुहणिही अक्खओ मोक्खो॥६॥ 748) दिटे तुमम्मि जिणवर संतोसो मज्म तह परो जाओ।
इंदविहवो वि जणइ ण तण्हालेसं पि जह हियए ॥ ७॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति मम नेत्राणि सफलीभूतानि । मम चित्तं मनः । च पुनः । गात्रम् अमृतेन सिञ्चितमिव जातम् ॥१॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति दृष्टिहर-चक्षुहहीर-अशेषमोहतिमिरेण तथा नष्टं यथा मया यथास्थितं तत्त्वं रष्टम् ॥२॥ भो जिनवर त्वयि दृष्टे सति मम हृदयं तथा परमानन्देन पूरितं यथा आत्मानं मोक्ष प्राप्तम् इव मन्ये ॥३॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति महापापं नष्टमिव मन्ये । यथा रवि-उद्गमे सति नैशं तमः निशोद्भवं तमः भन्धकारः कियन्तं काल तिष्ठति ॥ ४ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति से कोऽपि पुण्यप्राग्भारः सिध्यति येन पुण्यसमूहेन जनः प्रभुः भवति । इहलोकपरलोकसिद्धीनां पात्रं भवति ॥५॥ भो जिनवर त्वयि दृष्टे सति आत्मनः तं सुकृतलाभं मन्ये। येन सुकृतलामेन पुण्यलामेन स मोक्षः भविष्यति । किंलक्षणः मोक्षः । असदृशसुखनिधिः । पुनः अक्षयः विनाशरहितः ॥ ६ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति मम तथा परः श्रेष्ठः संतोषः जातः यथा इन्द्रविभवोऽपि हृदये तृष्णालेशं न जनयति नोत्पादयति ॥ ७ ॥
हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मेरे नेत्र सफल हो गये तथा मन और शरीर शीघ्र ही अमृतसे सींचे गयेके समान शान्त हो गये हैं ॥१॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर दर्शनमें बाधा पहुंचानेवाला समस्त मोह ( दर्शनमोह ) रूप अन्धकार इस प्रकार नष्ट हो गया कि जिससे मैंने यथावस्थित सत्त्वको देख लिया है- सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लिया है ॥ २ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मेरा अन्तःकरण ऐसे उत्कृष्ट आनन्दसे परिपूर्ण हो गया है कि जिससे मैं अपनेको मुक्तिको प्राप्त हुआ ही समझता हूं ॥३॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मैं महापापको नष्ट हुआ ही मानता हूं । ठीक है-सूर्यका उदय हो जानेपर रात्रिका अन्धकार भला कितने समय ठहर सकता है ! अर्थात् नहीं ठहरता, वह सूर्यके उदित होते ही नष्ट हो जाता है ॥ ४ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर वह कोई अपूर्व पुण्यका समूह सिद्ध होता है कि जिससे प्राणी इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी अभीष्ट सिद्धियोंका स्वामी हो जाता है ॥ ५ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मैं अपने उस पुण्यलाभको मानता हूं जिससे कि मुझे अनुपम सुखके भण्डारस्वरूप वह अविनश्वर मोक्ष प्राप्त होगा ॥ ६ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मुझे ऐसा उत्कृष्ट सन्तोष उत्पन्न हुआ है कि जिससे मेरे हृदयमें इन्द्रका वैभव भी लेशमात्र तृष्णाको नहीं
१मश अमएण। २ श तण्ही। ३ श क 'सः' नास्ति । ४ तृष्णालेशमपि न कारयति ।