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[२. दानोपदेशनम्] 199 ) जीयाजिनो जगति नामिनरेन्द्रसूनुः श्रेयो नृपश्च कुरुगोत्रगृहप्रदीपः ।
याभ्यां बभूवतुरिह बतदानतीर्थे सारक्रमे परमधर्मरथस्य चक्रे ॥१॥ 200) श्रेयोभिधस्य नृपतेः शरदभ्रशुभ्रभ्राम्यद्यशोभृतजगत्रितयस्य तस्य ।
किं वर्णयामि ननु समनि यस्य भुक्तं त्रैलोक्यवन्दितपदेन जिनेश्वरेण ॥२॥ 201) श्रेयान् नृपो जयति यस्य गृहे तदा खादेकाद्यवन्द्यमुनिपुंगवपारणायाम् ।
सा रनवृष्टिरभवजगदेकचित्रहेतुर्यया वसुमतीत्वमिता धरित्री ॥ ३॥ जिनः सर्वज्ञः जगति जीयात् । किंलक्षणः जिनः । नाभिनरेन्द्रसूनुः नाभिराजपुत्रः । च पुनः। श्रेयोनृपः जीयात्। किंलक्षण श्रेयोनृपः। कुरुगोत्रगृहे प्रदीपः कुरुगोत्रगृहप्रकाशने दीपः। याभ्यां द्वाभ्यां श्रीनाभिसूनुश्रेयोनृपाभ्याम्। इह भरतक्षेत्रे । व्रतदानतीय बभूवतुः। किंलक्षणे व्रतदानतीर्थे द्वे। सारक्रमे। पुनः किंलक्षणे व्रतदानतीर्थे। परमधर्म-आत्मीकधर्म-दानधर्मरथस्य चक्रे ॥१॥ ननु इति वितर्के । तस्य श्रेयोभिधस्य नाम्नः नृपतेः अहं किं वर्णयामि । किंलक्षणस्य श्रेयोभिधस्य । शरत्कालीन-अभ्र-मेघ-सदृशशुभ्र-उज्वलभ्राम्यद्यशःमृत-पूरितजगत्रितयस्य । यस्य सद्मनि श्रेयसः गृहे। जिनेश्वरेण ऋषभदेवेन । भुक्तं भोजनं कृतम् । कि लक्षणेन देवेन । त्रैलोक्यवन्दितपदेन इन्द्रधरणेन्द्रचक्रवर्तिवन्दितचरणेन ॥ २॥श्रेयान् नृपः जयति । यस्य श्रेयसः गृहे । तदा।
जिनके द्वारा उत्तम रीतिसे चलनेवाले श्रेष्ठ धर्मरूपी रथके चाकके समान व्रत और दान रूप दो तीर्थ यहां आविर्भूत हुए हैं वे नाभिराजके पुत्र आदि जिनेन्द्र तथा कुरुवंशरूप गृहके दीपकके समान राजा श्रेयान् भी जयवन्त होवें ॥ विशेषार्थ- इस भरत क्षेत्रमें प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय कालोंमें भोगभूमिकी अवस्था रही है। उस समय आर्य कहे जानेवाले पुरुषों और स्त्रियोंमें न तो विवाहादि संस्कार ही थे और न व्रतादिक भी। वे दस प्रकारके कल्पवृक्षोंसे प्राप्त हुई सामग्रीके द्वारा यथेच्छ भोग भोगते हुए कालयापन करते थे। कालक्रमसे जब तृतीय कालमें पल्यका आठवां भाग (३) शेष रहा तब उन कल्पवृक्षोंकी दानशक्ति क्रमशः क्षीण होने लगी थी। इससे जो समय समयपर उन आर्योंको कष्टका अनुभव हुआ उसे यथाक्रमसे उत्पन्न होनेवाले प्रतिश्रुति आदि चौदह कुलकरोंने दूर किया था। उनमें अन्तिम कुलकर नाभिराज थे। प्रथम तीर्थकर भगवान् आदिनाथ इन्हीं के पुत्र थे। अभी तक जो व्रतोंका प्रचार नहीं था उसे भगवान् आदिनाथने स्वयं ही पांच महाव्रतोंको ग्रहण करके प्रचलित किया। इसी प्रकार अभी तक किसीको दानविधिका भी परिज्ञान नहीं था। इसी कारण छह मासके उपवासको परिपूर्ण करके भगवान् आदि जिनेन्द्रको पारणाके निमित्त और भी छह मास पर्यंत घूमना पड़ा। अन्तमें राजा श्रेयान्को जातिस्मरणके द्वारा आहारदानकी विधिका परिज्ञान हुआ । तदनुसार तब उसने भक्तिपूर्वक भगवान् आदिनाथको इक्षुरसका आहार दिया । बस यहांसे आहारादि दानोंकी विधिका भी प्रचार प्रारम्भ हो गया । इस प्रकार भगवान् आदिनाथने व्रतोंका प्रचार करके तथा राजा श्रेयान्ने दानविधिका प्रचार करके जगत्का कल्याण किया है । इसीलिये ग्रन्थकार श्री मुनि पद्मनन्दीने यहां व्रततीर्थके प्रवर्तक स्वरूपसे भगवान् आदि जिनेन्द्रका तथा दानतीर्थके प्रवर्तक स्वरूपसे राजा श्रेयान्का भी स्मरण किया है ॥ १॥ जिस श्रेयान् राजाके गृहपर तीनों लोकोंसे वन्दित चरणोंवाले भगवान् ऋषभ जिनेन्द्रने आहार ग्रहण किया और इसलिये जिसका शरत्कालीन मेघोंके समान धवल यश तीनों लोकोंमें फैला, उस श्रेयान् राजाका कितना वर्णन किया जाय ! ॥२॥ जिस श्रेयान् राजाके घरपर
१ श भ्राम्ययशःपूरित ।