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१. धर्मोपदेशामृतम् 197) यत्पादपकजरजोभिरपि प्रणामा
लग्नैः शिरस्यमलवोधकलावतारः। भव्यात्मनां भवति तत्क्षणमेव मोक्षं
स श्रीगुरुर्दिशतु मे मुनिवीरनन्दी ॥ १९७ ॥ 198 ) दत्तानन्दमपारसंसृतिपथश्रान्तश्रमच्छेदकृत्
प्रायो दुर्लभमत्र कर्णपुटकैर्भव्यात्मभिः पीयताम् । निर्यातं मुनिपद्मनन्दिवदनप्रालेयरश्मेः परं स्तोकं यद्यपि सारताधिकमिदं धर्मोपदेशामृतम् ॥ १९८ ॥
इति धर्मोपदेशामृतं समाप्तम् ॥ १॥ तत्क्षणमेव अमलबोधकलावतारः भवति । किंलक्षणैः रजोभिः। प्रणामात् शिरसि लग्नैः ॥ १९७ ॥ भो भव्याः। इदं धर्मोपदेशामृतं भव्यात्मभिः कर्णपुटकैः कर्णाञ्जलिभिः पीयताम् । किंलक्षणम् अमृतम् । दत्तानन्दम् । पुनः किंलक्षणम् अमृतम् । अपारसंसृति-संसारपथश्रान्तश्रमच्छेदकृत् संसारपथमार्गस्थश्रमविनाशकम् । पुनः किंलक्षणम् अमृतम् । धर्मोपदेशामृतम् । प्रायः बाहुल्येन । अत्र संसारे दुर्लभम् । पुनः किं लक्षणं धर्मोपदेशामृतम् । मुनिपद्मनन्दिवदनप्रालेयरश्मेः मुनिपद्मनन्दिवदनचन्द्रमसः । निर्यातम् उत्पन्नम् । पुनः किंलक्षणम् । परम् उत्कृष्टम् । यद्यपि स्तोकं तथापि सारताधिकं समीचीनम् ॥ १९८ ॥
इति धर्मोपदेशामृतं समाप्तम् ॥ १॥
प्राप्ति होती है वे श्रीमुनि वीरनन्दी गुरु मेरे लिये मोक्ष प्रदान करें ॥ १९७ ॥ जो धर्मोपदेशरूप अमृत आनन्दको देनेवाला है, अपार संसारके मार्ग में थके हुए पथिकके परिश्रमको दूर करनेवाला है, तथा बहुत दुर्लभ है, उसे भव्य जीव कानोंरूप अंजुलियोंसे पीवें अर्थात् कानोंके द्वारा उसका श्रवण करें। मुनि पभनन्दीके मुखरूप चन्द्रमासे निकला हुआ यह उपदेशामृत यद्यपि अल्प है तथापि श्रेष्ठताकी अपेक्षा वह अधिक है । विशेषार्थ-जिस प्रकार अमृतका पान करनेसे पथिकके मार्गकी थकावट दूर हो जाती है और उसे अतिशय आनन्द प्राप्त होता है उसी प्रकार इस धर्मोपदेशके सुननेसे भव्य जीवोंके संसारपरिभ्रमणका दुख दूर हो जाता है तथा उन्हें अनन्तसुखका लाभ होता है, जैसे दुर्लभ अमृत है वैसे ही यह उपदेश भी दुर्लभ है, अमृत यदि चन्द्रमासे उत्पन्न होता है तो यह उपदेश उस चन्द्रमाके समान मुनि पद्मनन्दीके मुखसे प्रादुर्भूत हुआ है, तथा जिस प्रकार अमृत थोड़ा-सा भी हो तो भी वह लाभकारी अधिक होता है उसी प्रकार ग्रन्थप्रमाणकी अपेक्षा यह उपदेश यद्यपि थोड़ा है फिर भी वह लाभप्रद अधिक है । इस प्रकार इस उपदेशको अमृतके समान हितकारी जानकर भव्य जीवोंको उसका निरन्तरमनन करना चाहिये ॥१९८।।
इस प्रकार धर्मोपदेशामृत समाप्त हुआ ॥ १॥
कबीरनन्दिः।