________________
पन्भनन्दि-पञ्चविंशतिः
[128 : १.१२८सत्यां छमस्थतायामिह समयपथस्वानुभूतिप्रबुद्धा
भो भो भव्या यत, हगवगमनिधावात्मनि प्रीतिभाजः ॥ १२८ ॥ 129 ) तङ्ख्यायत तात्पर्याज्योतिः सञ्चिन्मयं विना यस्मात् ।
सदपि न सत् सति यस्मिन् निश्चितमाभासते विश्वम् ॥ १२९ ॥ 130) अशो यद्भवकोटिभिः क्षपयति वं कर्म तस्माद्बहु
स्वीकुर्वन् कृतसंवरः स्थिरमना ज्ञानी तु तत्तत्क्षणात् । तीक्ष्णक्लेशहयाश्रितो ऽपि हि पदं नेष्टं तपास्यन्दनो
नेयं तन्नयति प्रभुं स्फुटतरज्ञानकसूतोज्झितः ॥ १३० ॥ सिद्धान्तपथानुभूतिजागरिताः । आत्मनि यतध्वम् । किंलक्षणा भव्याः। दृगवगमनिधौ रत्नत्रये। प्रीतिभाजः रत्नत्रयम् आश्रिताः ॥१२८॥ तात्पर्यात् निश्चयेन । तत् चिन्मयं ज्योतिः ध्यायत । किंलक्षणं ज्योतिः । सत् विद्यमानम् । निश्चितम् । यस्मात् ज्योतिषः विना। विश्वं समस्तलोकम् । सत् अपि न सत् विद्यमानम् अपि अविद्यमानम् । यस्मिन् ज्योतिःप्रकाशे सति । विश्वं समस्तम् । आभासते प्रकाशते ॥१२९॥ अज्ञः मूर्खः। यत् खं कर्म । भवकोटिभिः पर्यायकोटिभिः कृत्वा क्षपयति। तस्मात् कर्मणः। बहु कर्म खीकुर्वन् अनीकरोति । तु पुनः । कृतसंवरः स्थिरमनाः ज्ञानी पुमान् । तत् कर्म । तत्क्षणात् क्षपयति । दृष्टान्तमाह । हि यतः । तपःस्यन्दनः तपोरथः । नेयं राजानम् आत्मानं प्रभुम् । इष्टं पदं मोक्षपदम् । न नयति । किंलक्षणः तपोरथः । स्फुटतरज्ञानकसूतोज्झितः प्रकटज्ञानसारथिरहितः। पुनः किंलक्षणः तपोरथः । तीक्ष्णफ्लेशहयाश्रितः अपि तीक्ष्णक्लेशघोटकसहितोऽपि ॥ १३०॥
रहनेपर सिद्धान्तके मार्गसे प्राप्त हुए आत्मानुभवनसे प्रबोधको प्राप्त होकर आप सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी निधिस्वरूप आत्माके विषयमें प्रीतियुक्त होकर प्रयत्न कीजिये- उसकी ही आराधना कीजिये । विशेषार्थ
अल्पज्ञताके कारण हम लोग जिन परोक्ष पदार्थों के विषयमें कुछ भी निश्चय नहीं कर सकते हैं उनके विषयमें हमें जिनेन्द्र देवको, जो कि राग-द्वेषसे रहित होकर सर्वज्ञ भी है, प्रमाण मानना चाहिये । यद्यपि वर्तमानमें वह यहां विद्यमान नहीं है तथापि परम्पराप्राप्त उसके वचन (जिनागम ) तो विद्यमान है ही। उसके द्वारा प्रबोधको प्राप्त होकर भव्य जीव आत्मकल्याण करनेमें प्रयत्नशील हो सकते हैं ॥ १२८॥ चैतन्यमय उस उत्कृष्ट ज्योतिका तत्परतासे ध्यान कीजिये, जिसके विना विद्यमान भी विश्व अविद्यमानके समान प्रतिभासित होता है तथा जिसके उपस्थित होनेपर वह विश्व निश्चित ही यथार्थस्वरूपमें प्रतिभासित होता है ॥ १२९॥ अज्ञानी जीव अपने जिस कर्मको करोड़ों जन्मोंमें नष्ट करता है तथा उससे बहुत अधिक ग्रहण करता है उसे ज्ञानी जीव स्थिरचित्त होकर संवरको प्राप्त होता हुआ तत्क्षण अर्थात् क्षणभरमें नष्ट कर देता है । ठीक है-तीक्ष्ण क्लेशरूपी घोड़ोंके आश्रित होकर भी तपरूपी रथ यदि अतिशय निर्मल ज्ञानरूपी अद्वितीय सारथिसे रहित है तो वह अपने ले जानेके योग्य प्रभु ( आत्मा और राजा) को अभीष्ट स्थानमें नहीं प्राप्त करा सकता है। विशेषार्थ-जिस प्रकार अनुभवी सारथी (चालक) के विना शीघ्रगामी घोड़ों के द्वारा खींचा जानेवाला भी स्थ उसमें बैठे हुए राजा आदिको अपने अभीष्ट स्थानमें नहीं पहुंचा सकता है उसी प्रकार सम्यग्ज्ञानके विना किया जानेवाला तप दुःसह कायक्लेशोंसे संयुक्त होकर भी आत्माको मोक्षपदमें नहीं पहुंचा सकता है । यही कारण है कि जिन कर्मोको अज्ञानी जीव करोड़ों भवोंमें भी नष्ट नहीं कर पाता है उनको सम्यग्ज्ञानी जीव क्षणभरमें ही नष्ट कर देता है। इसका भी कारण यह है कि अज्ञानी प्राणीके निर्जराके साथ साथ नवीन कोंका आस्रव भी होता रहता है, अतः वह कर्मसे रहित नहीं हो पाता है। किन्तु इसके विपरीत ज्ञानी जीवके जहां नवीन कर्मोंका आस्रव रुक जाता है वहां पूर्वसंचित कर्मकी निर्जरा भी होती है। अतएव