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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्रिगुणातीत अवस्था का बोध पुरुप महायोगी हमारी जड़ बुद्धि के तर्कों में फंसेगा ऐसा सम्भव नहीं । इसलिये ही कृष्ण ने गीता में कहा है कि साधक किसी भी स्तर का हो उसे शुरू-शुरू में अपने नित्य कर्मों को साधक बनाकर अपनी कर्म साधना शुरू कर देनी चाहिये, लेकिन ध्यान रहे, कर्म करते समय हमें उस कर्म से स्वयं को जोड़ नहीं लेना है । नहीं तो, वह कर्म निष्कर्म न होकर सकर्म हो जाता है । और ऐसा सकर्म ही हमारे संस्कारों की कड़ियों में एक कड़ी और जोड़ देता है। जवकि अगर हम उसी कर्म को परमात्मा का कर्म या उसके प्रति समर्पित भाव से करते हैं, तब उस कर्म का प्रभाव हमारे मन मस्तिष्क पर नहीं पड़ता है। केवल ऐसी परिस्थिति में ही हम उसके परिणामों से अछूते रह पाते हैं । यह बात तो रही कुछ ऊपरी समझ की। क्योंकि इन सीधी-सीधी बातों को समझते हुए भो हम इन्हें ठीक से कहाँ समझ पाते हैं। इनको समझने के लिए हमें आध्यात्मिक गहराई में डुबकी लगानी होगी, तबही हम "कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्" का अर्थ सही मायने में समझ पायेंगे । जैसे कोई गुरू अपने अनन्य शिष्यों को एक ही क्रिया सिखाता है, लेकिन उस क्रिया के अनुभव प्रत्येक शिष्य को अलग-अलग होते हैं। क्यों होता है ऐसा? इस बात पर जब हम गौर पूर्वक चिन्तन करते हैं तब कुछ नई बातें हमारे सामने प्रकट होती हैं। एक तो यह कि उन शिष्यों की लगन या तीव्रता अलग-अलग श्रेणी की होगी, जिसकी वजह से परिणाम अलग आयेगें ही, दूसरी वजह यह है कि वे शिष्य किन-किन संभावनाओं को लेकर इस पृथ्वी पर पैदा हुए हैं ? अथवा उनके मन में किस-किस तरह के संस्कार भरे हैं ? उन संस्कारों के कारण से भी उनके कर्म करने की शैली में अन्तर पड़ जाता है । और तीसरी बात है उनकी अपनी चंचल वृत्तियाँ ? क्योंकि जैसा मैंने पहले लिखा है कि जब तक चित्त की वृत्तियाँ हमें थोड़ा आराम नहीं लेने देती है, तब तक हमारा मन खाली नहीं होता। और जब तक हमारा मन खाली ही नहीं है तब तक शरीर से किया करते हुए भी हम कुछ नहीं करते हैं। इसलिये जब तक हम (तीनों तरह से) एक जैसी परिस्थितियों में रहकर, एक जैसी मानसिक अवस्था में तथा एक जैसी गति से कोई एक कर्म नहीं करेंगे, तम तक एक जैसे परिणाम हमें कैसे प्राप्त हो सकेंगे। और मानव मनों की बड़ी से बड़ी विडम्बना यह है कि इस संसार के एक For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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