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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२६ योग और साधना अब मैं उस मुख्य शंका पर आता हूँ जिसमें कहा जाता है कि जब हमें उसी में से निकल कर उसी में ही विलीन हो जाना है। तब हम उम परमात्मा के द्वार के बाहर निकले ही क्यों थे ? इस बारे में मैं जहाँ तक जानता हूँ, दो तरह की बातें हमारे सामने आज हैं इनमें पहला सिद्धान्त उन लोगों का है जिनकी मानसिकता भक्ति से ओत-प्रोत है। दूसरा सिद्धान्त हमारे समक्ष उन लोगों के द्वारा आया है जो स्वयं ही प्रयोग करके अनुभव प्राप्त करने में विश्वास रखते हैं । प्रथम जिसमें श्रद्धा, भक्ति और प्रेम का समन्वय है आपके सामने रखता हूँ। श्रद्धा की भावना लिये बिना इसे समझना थोड़ा कठिन ही होगा क्योंकि प्रेम में आदमी शंका नहीं करता, प्रश्न नहीं उठाता, बस मानता है। इसलिये इसे समझते समय थोड़ा आप श्रद्धापूर्वक ही समझने की कोशिश करें। ___ इस मत के अनुसार जिसे सगुण या साकार का मार्ग कहते हैं इसमें हम यह मानकर चलते हैं कि शुरू में इस दुनियां की रचना करते समय परमात्मा ने हमको अपने अंश में से निकाल कर इस दुनियां में भेजा। हम इस दुनियां में कर्म करने को स्वतंत्र थे, हमने जो भी कर्म किये प्रथम जन्म के बाद उन्हीं कर्मों के बन्धन में पड़ कर आज तक हम इस संसार में भटक रहे हैं। जब तक वह चाहेगा हमें यहां इस सर्कस के पात्र के रूप में खेल खिलाता रहेगा अथवा वह खिलाड़ी है और हम उसके खिलौने हैं, वह परम पिता है, हम उसको सन्तानें हैं, वह अंशी है, हम उसके अंश हैं, वह परमआत्मा है तो हम उसकी आत्माएं हैं ; हमारी बाग डोर उसके हाथ में है, जब तक वह चाहता है हम उसके हाथों कठपुतली की तरह नाचते रहते हैं, जब वह नहीं चाहता है अपने पास बुला लेता है। हाथ हमारे होते हैं कर्ता वह होता है, बुद्धि हमारी होती है लेकिन मन पर उसका प्रभाव रहता है, बह हमेशा हमारा ख्याल रखता है, वह हमारी परवरिश करता है । हमारे द्वारा किये जा रहे कर्मों का वह हिसाब-किताब रखता है फिर वह For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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