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Achar
कुण्डलिनी जागरण ही समाधि
मोर उसी अवस्था में आँखें बन्द किये हुये, अपनी स्वांस पर ध्यान केंद्रित किया करता था। जिसमें अक्सर हमेशा ही ऐसा होता था कि मेरा ध्यान शरीर के मन्दर और बाहर आती जाती स्वांस पर से पता नहीं कब हट जाता और जब मेरा बैठा हुआ निद्रित शरीर नींद के कारण गिरने को होता तब उस झटके से मुझे होश आता था । जब मुझे होश आता था तब अपनी इस अवस्था को जानकर बड़ा हताश भी होता था तथा अपनी क्षमता पर भी तरस आता था कि कमाल है कि इतना साधारण सा कार्य भी मैं सफलतापूर्वक नहीं कर सकता है। फिर यह भी सोचता कि यदि यह कार्य इतना साधारण होता तो इस दुनिया के सभी लोग नहीं कर लेते । जब बहुत तन्मयना के साथ बैठता तब यदि नींद नहीं आती तो एक और अन्य बाधा खड़ी हो जाती जिसमें मेरा ध्यान पता नहीं कहाँ अपनी वृत्तियों के चक्र व्युह में फंसा होता था। कितने ही महीनों में इसी प्रकार की बाधाओं से ग्रस्त रहा । इस स्थिति में जरा सा भी परिवर्तन कभी मुझे महसूस नहीं हुआ । उन दिनों में बड़ी ही कशमकश में रहा करता था। किसी से पूछता तो जबाब मिलता किसी अनुभवी के सान्निध्य में रहकर साधना करो अन्यथा यदि किताबों में लिखे के हिसाब से करोगे और बिलकुल अक्षर से अक्षर मिलाकर परिणाम प्राप्त करना चाहोगे तो असफल ही रहोगे।
बड़ी कठिन मानसिकता से गुजर रहा था क्योंकि मुझे यह कैसे पता मुझे चले कि कौन गुरू जड़ है और कौन चैतन्य, और जिनको मैंने अपने बचपन में १५ साल पहले गुरू बनाया था उनका तो उसके बाद से आज तक पता ही नहीं था। मुझे एक परेशानी इसके अतिरिक्त और भी थी कि मैं अपने घर तथा अपने फोटोग्राफी के व्यापार को छोड़कर दुकान बन्द करके किन्हीं अनुभवी साधु के वहां जाकर उनके सन्निध्य में रहना भी मुझे बड़ा मुश्किल ही था। हालांकि मेरे मन में इस बास की बड़ी कशमकश थी लेकिन फिर भी मैं नित्य प्रति अपनी ऊपर बतापी हुई क्रिया को किया करता था और जब तक मैं इस क्रिया को नहीं कर लेता तब तक पानी भी नहीं पीता था चाहे दोपहर ही क्यों न हो जाये । इसी प्रकार से कुछ समय और निकल गया । दुकान पर मंगलवार के दिन साप्ताहिक अवकाश रहता था उस दिन मैं अपनी साधना के दौरान कुछ ज्यादा समय के लिए बाती जाती स्वाँस पर ध्यान रखकर बैठ जाया करता था । इसी प्रकार एक मंगल के
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