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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७२ योग और साधना क्योंकि इस प्रकार के अनुभव जिन्दगी में किये गये अनुभवों से बिलकुल अनूठे और महत्वपूर्ण होते हैं । मेरा मस्तिष्क जो कि दूसरे कदम तक साथ था लेकिन तीसरे कदम पर फेल हो गया था और उसने यह मान लिया था कि यह शरीर तो गया बस उसी समय उस असफल मस्तिष्क के पास से सारे अधिकार छिन गये । प्राण फौरन इड़ा पिघला मैं से निकले और दौड़ पड़े सुषमणा की ओर । प्राणों के इडा पिंघला में से निकलते समय हमेशा एक विशेष प्रकार की सन्नाहट होती हैं जो शुरू में घबराहट पैदा करती है और चूकि हम इड़ा पिंघला में नहीं होते इसलिए हमारी आँखे ठीक से देख भी नहीं सकती । हमारा मस्तिष्क पहले जैसा विचारशील इस अवस्था में रह नहीं सकता । अब प्रश्न उठता है उस गौमुख के रास्ते में जब वह घटना पटो तव यदि यह मान भी लिया जाये कि प्राण इडा पिघला से निकल गये होंगे। ऐसा बहधा डर के कारण हो ही जाता है । बहुतों की तो हृदय गति भी रूक जाती है फिर बिना किसी प्रक्रिया के अपनाये यह शंका यहाँ उठती है कि वे सुषमणा नाड़ी में क्योंकर चले गये । इस बात को बड़े गौर से आप ऐसे समझें । इसी शंकावश इस घटना से पूर्व की स्थिति विस्तार पूर्वक मैंने यहां लिखी है जिस कारण से आप इसे अच्छी तरह से समझ सकेंगे क्योंकि बिना उन परिस्थितियों को अपने समक्ष रखें इस भावनात्मक पहलू को आप कैसे समझ सकेगें। ___ इसमें पहली बात तो आप इसे ख्याल में ले आयें कि इस यात्रा के प्रारम्भ में दो घन्टे चलने पश्चात शरीर के थकान की चिन्ता करते हुए भी मेरी प्रमाढ़ आकांक्षा रहीं थी कि चाहे कुछ भी क्यों न हो जाये किसी तरह भी हमें आगे चलना ही चाहिये अगर पाराशर जी नहीं चलते तो मेरा जाना भी संभव नहीं था इसीलिए ही मैंने उस समय अपने निजी संसार की व्याख्या बदलदी थी। दूसरी बात थी समपर्ण यानि समुत्व भाव सहित अर्पण । हमने जब आगे की यात्रा विश्राम लेने के पश्चात दोबारा से शुरू की थी तब इस धारणा के साथ शुरू की थी कि अब हम जीवित बचें या मर जायें । इसकी कोई चिन्ता नहीं रखेंगें तथा जहां हमने अपना जीवन ही दांव पर लगा दिया था । उस परमात्मा के प्रति तो अब हमारी श्रद्धा में कमी रहने का सवाल ही कहां बचता था ? तीसरी बात थी सतत होश । हम निरन्तर चैतन्य होकर परमात्मा के For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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