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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इडा पिघला और सुषमणा नाड़ियों का अस्तित्व तथा प्रभाव १७१ कहीं जरा सी अटकी हो और हमारे इस प्रकार मिट्टी हटाने से वह नीचे आ जाये और हमें भी अपने साथ नीचे ले जाय। दूसरी पार जाना हमें अवश्य ही जरूरी था क्योंकि अब शाम हो चली थी बापिस लौटने का समय भी नहीं था । क्योंकि रात्रि होते ही अन्धकार के कारण इस रास्ते पर चलना कठिन क्या असम्भव ही था। वैसे भी मैदान की अपेक्षा यहाँ अवेरा जल्दी ही होने वाला था। मैंने मन में सोचा कि यह ट्टा हुआ रास्ता केवल सात आठ फुट ही तो हैं उसके बाद तो पैर टिकाने को जगह है ही मेरी लम्बाई भी अच्छी है यदि अपनी लकड़ी के सहारे से मैं अपना एक पैर भी किसी तरह से बीच में रख लू तो दूसरा पैर निश्चित रूप से दूसरी तरफ किनारे पर ही होगा । बेकार में समय को नष्ट करने से कुछ होगा नहीं जो कुछ होना है वह तो रूकेगा नहीं लेकिन हिम्मत भी क्यों छोड़नी । मन में गंगा मैया का स्मरण किया और मैंने एक छलांग अपनी लकड़ी के साथ लगाई लेकिन मेरा वह पैर उस बालू रेत में स्थिर न रह सका। लकड़ी भी कहीं कोई सहारा नहीं दे पायी मैं कोई डेढ़ फुट नीचे खिसक गया तभी शायद विद्य त की गति से भी तेज दुसरा पैर आगे टिकाने के लिए बढ़ाया लेकिन वह भी जैसे बिना आधार के ही रहा । उसके उपरान्त मेरा पहला पैर दूसरे किनारे पर कब और किस तरह पहुँच गया मैं उसकी गति को अपनी याददास्त में नहीं रख सका । उस तीसरे कदम को रखते न रखते मैं किसी ओर दुनिया में पहुंच गया था। मेरा सारा का सारा शरीर एक प्रकार से सुन्न रह गया था, आँखों के सामने अधेरा उजाला सा मिश्रित था। किसी प्रकार की आवाज सुनने की तो वहाँ कोई संभावना ही नहीं थी उस समय साँस की तो क्या हृदय की धड़कन का भी पता नहीं था। शरीर का भारीपन भी ऐसा नहीं था और ऐसा लगा कि दूसरे पैर के फिसलने के बाद इस तीन चरणों को यात्रा का आखिरी चरण मैंने उड़कर ही तय किया था। दूसरी तरफ पहुँचने के बाद तथा संयत होने पर ही मुझे सब दुनियाँदारी याद आयी। सबसे पहले अपनी साँस जो धौंकनी तरह चल रहीं थी धड़कन जो बहुत तेज थी, शरीर जो इतनी गजब की ठन्ड में भी पसीने से नहा रहा था । तब थोड़ी देर बाद सामने दूसरी तरफ पाराशर जी और वह लड़का दिखाई दिया। दो तीन मिनट तक मैं उनको देखता रहा और वे मुझे। इस घटना ने कितनी जानकारी दी मेरे मस्तिष्क के लिए। शरीर पर विपदा पड़ने के समय और स्थिति समान्य होने के बाद क्या परिस्थितियाँ गुजरती हैं ? ये बातें शायद वर्षों के अन्तराल के बाद भी स्मृति में बिल्कुल ताजा बनी रहती हैं For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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