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योग और साधना
रास्ते पर । पूछने पर उसने बताया, वह लाल बाबा के आश्रम पर यह सामान ले
जा रहा है ।
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दो तीन घण्टे चलने के पश्चात अब हम और भी कठिन तथा पिछले मार्ग से भी बढ़कर दुर्गम मार्ग पर हम आ गये थे। पहले हम पक्के पहाड़ों पर चले थे, जहाँ हमारे बांयी तरफ एक दम सीधी हजारों फुट ऊँची पहाड़ की चोटियाँ थीं । जो कभी दिखाई देती थीं, कभी नहीं । हमारे दांयीं तरफ पाँच सौ फुट नीचे गंगा बह रही थी जो नीचे की तरफ झाँकने पर पगडन्डी की तरह दिखाई देती थी । ऊँचे से ऊँचे स्थान पर यदि कोई पेड़ और पक्षी हमें दिखाई पड़े तो वे थे भोजपत्र के पेड़ | भोजपत्र का पेड़ जिसके तने से सफेद कागज की तरह के पतले पत्र उतारे जा सकते थे । पक्षी के नाम पर मिला हमैं कौआ, जिसके बदन पर कुछ बालों का भारीपन था । यहाँ पर यह सुविधा फिर भी थी, मौसम कैसा भी हो कम से कम 'पैरों के नीचे जमीन तो पक्की थी लेकिन अब आगे जो रास्ता हमारे सामने था वह एक दम बदल गया था। गंगा तो अब भी उतनी ही नीचे हमसे थी और पहाड़ की चोटी भी उतनी ही ऊँची होगी लेकिन अब पहाड़ पक्के नहीं थे बल्कि - कच्चे चूने कंकड़ के रेतीले से थे । कहीं बड़ी-बड़ी शिलायें भी उनमें अटकी सी लग रहीं थी जो कभी बरसात में या भूस्खलन के समय लुढ़क कर गंगा में ' पहुंचने को तैयार लग रही थी। इसी तरह के रास्ते पर हम दोनों तथा वह लड़का धीरे-धीरे बढ़े चले जा रहे थे, आगे आगे मैं था । एक जगह ऐसी आयी जहाँ लग भग आठ फुट की दूरी तक का वह रास्ता टूट कर गंगा में गिर गया था। ऊपर से नीचे तक ढलकान ही ढलकान था। शायद ऊपर से कोई शिला लड़की होगी जो दो तीन फुट के चौड़े रास्ते को भी तोड़ती हुयी अपने साथ गंगा में ले गई थी । उस जगह को देखकर एक बार तो लगा कि इतनी दूर आकर भी सारा श्रम व्यर्थ ही गया क्योंकि आगे बढ़ने की कोई सूरत नजर नहीं आ रही थी। मैंने उस ढल - कान में पैर जमाने के लिए थोड़ा सा अन्दाजा लगाने की गर्ज से उस बालू को जरा सा कुरेदा तो मैं स्वयं बड़े आश्चर्य में पढ़ गया क्योंकि मेरे जरा सा उस बालू की -सी रेत को कुरेदने पर ऊपर से इतनी मिट्टी खिसकने लगी कि मेरे तो प्राण ही - सूख गये कि कहाँ मधु मक्खियों के छत्ते पर हाथ दे डाला । वहाँ धुर नीचे से और ऊपर जाने कहाँ तक जिस प्रकार बजरी का ढेर होता है उसी प्रकार की यहाँ स्थिति थी हमने सोचा कहीं ऐसा न हो कि ऊपर कोई शिला खण्ड इस समय
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