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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीव की संरचना १४१ की परिधि के बाहर अपनी कार्य क्षमता बनाये रख सके क्योंकि इन उपरोक्त. आधारों की अपनी सीमाएँ हैं । जबकि पृथ्वी की परिधी के बाहर अन्तरिक्ष में केवल आकाश तत्व ही आधार बन सकता है । अन्य कोई साधन इस बीच और है ही नहीं । जिसे हम आधार बनाकर अपने शब्दों को संप्रेषित इस ब्रह्माण्ड के किसी कोने में कर सकें। यह आकाश तत्व ही वह है जिसके द्वारा हम जुड़े हैं इस असीमित ब्रह्मांड में एक दूसरे से अरबों खरबों प्रकाश वर्ष दूरी पर स्थिति रहते हुए भी । अगर यह आकाश तत्व नहीं होता तो हम अपनी पृथ्वी तक ही सीमित रह जाते । या दूसरे शब्दों में फिर इस ब्रह्मांड की कल्पना ही असंभव होती। इसके बिना इस सृष्टि का क्या स्वरूप होता, परमात्मा ही जानता है। । तो ध्यान रहे, यह आकाश तत्व अन्य चारों तत्वों से अलग है और इसका प्रवाह वहाँ भी निर्वाध जारी रहता है जहाँ कुछ भी नहीं सिवाय अन्तरिक्ष के यह उन तमाम स्थूल की सीमाओं के बाहर है इसे किसी भी बन्धन में बाँधा नहीं जा सकता और नहीं जलाया जा सकता है लेकिन इसे मानसिक क्रियाओं के द्वारा प्रभावित किया जा सकता है । मानसिक रूप से तरंगित करके अथवा वैज्ञानिक क्रियाओं रेडियो ट्रांसमीशन पद्धति के द्वारा इसमें बदलाव लाया जा सकता है । यह स्वयं वैद्युतिक नहीं है । इसलिये इसे न तो हम ऋणात्मक मान सकते और न ही धनात्मक । लेकिन इसको ऋणात्मक या धनात्मक, जिस रूप में हम चाहते हैं उसी तरह का प्रभाव देकर, उसके स्वरूप को हम प्राप्त कर सकते हैं। उसके अलावा इसमें एक क्षमता और है, इसकी दूरी पर विजय प्राप्त होने के कारण यह उतनी सी देर में ही उस जगह पहुँच जाता है जितनी देर में हम अपने विचार से पहुंचते हैं। हमारे सूक्ष्म शरीर को लेकर गर्भ में पनपते हुए स्थूल शरीर के अन्दर हमें पहुँचाना और बाद में फिर उसी मृत प्रायः देह से वापिस हमें निकाल कर फिर सूक्ष्म में ले आना इसी आकाश तत्व का ही कार्य है । क्योंकि असीमित क्षमताओं वाला अस्तित्व हो उस दुष्कर कार्य को सम्पन्न कर सकता है । असल में आकाश तत्व ही तो प्राण है । कुछ लोग प्राणों को ही हमारा अपना अस्तित्व मान लेते हैं जबकि प्राण तो वह आधार है जिसको आधार बनाकर हम स्वयं इस देह के अन्दर आते और जाते हैं। अगर हमें स्वयं को समझना है तो इन प्राणों के साथ हमें अपने अन्दर तीन चीजों को और समझना होगा। प्रथम है मन, दूसरे हमारे For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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