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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री व्यवहार सूत्रम् सप्तम उद्देशकः ११८२ (B) जत्थेव अण्णमण्णं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा "अहं णं अजो! तुमए सद्धिं इमम्मि कारणम्मि पच्चक्खं पाडिएकं संभोइयं विसंभोगं करेमि।" से य पडितप्पेज्जा, एवं से नो कप्पइ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए। से य नो पडितप्पेज्जा, एवं से कप्पड़ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए॥ ३॥ 'जे य निग्गंथा य निग्गंथीतो य' इत्यादि। अत्र सम्बन्धमाहसंभोइउं पडिक्कमाविया य कप्पइ अयं पि संभोगो । सो उ विवक्खे वुत्तो, इमं तु सुत्तं सपक्खम्मि ॥ २८५८॥ अनन्तरसूत्रे प्रतिक्राम्य सम्भोक्तुं कल्पते इत्युक्तम्, अयमपि चाऽनेन सूत्रेणाभिधीयमानः | सम्भोगस्ततः सम्भोगाधिकारादिदं सूत्रं प्रवृत्तमथवाऽयं सम्बन्धः- पूर्वसूत्रे सम्भोगो विपक्षे संयतीरूपेऽभिहित इदं तु सूत्रं सपक्षे संयतरूपे सम्भोगविषयमिति सम्बन्धः ॥ २८५८ ॥ AWAN सूत्र ३ गाथा २८५७-२८६० परोक्षे विसम्भोगकरणनिषेधः ११८२ (B) For Private And Personal Use Only
SR No.020937
Book TitleVyavahar Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2010
Total Pages606
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vyavahara
File Size15 MB
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