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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री व्यवहार सूत्रम् पंचम उद्देशकः १००२ (B) अब्भुजयं विहारं, परिवजिउकामे दुस्समुक्कटुं । जह होती समणाणं, भत्तपरिण्णा तहा तासिं ॥२२९२॥ यथा प्राक् श्रमणानामभ्युद्यतविहारं प्रतिपत्तुकामे दुःसमुत्कृष्टं भवति दुःसमुत्कृष्टं प्रतिपादितम्, तथा तासां श्रमणीनां भक्तपरिज्ञा प्रतिपत्तुकामायां दुःसमुत्कृष्टं भावनीयम् ॥२२९२॥ __सूत्रम्- निग्गंथीए नवडहरतरुणियाए आयारपकप्पे नामं अज्झयणे परिब्भटे || १५-१६ सिया, सा य पुच्छियव्वा 'केण' भे कारणेणं अजे ! आयारपकप्पे नामं अज्झयणे गाथा परिब्भटे, किं आबाहेणं उदाहु पमाएणं' ? सा य वएज्जा 'नो आबाहेणं, पमाएणं', २२९१-२२९२ निर्ग्रन्थजावज्जीवाए तीसे तप्पत्तियं नो कप्पड़ पवत्तिणित्तं वा गणावच्छेइणित्तं वा उद्दिसित्तए निर्ग्रन्थ्योः वा धारेत्तए वा। सा य वएज्जा 'आबाहेण, नो पमाएणं', सा य 'संठवेस्सामीति' || सूत्रविस्मसंठवेज्जा, एवं से कप्पइ पवत्तिणित्तं वा गणावच्छेइणित्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए | रणादिः वा, सा य संठवेस्सामीति' नो संठवेज्जा, एवं से नो कप्पइ पवित्तिणित्तं वा १००२ (B) गणावच्छेइणित्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा ॥ १५॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020936
Book TitleVyavahar Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2010
Total Pages540
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vyavahara
File Size15 MB
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