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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री व्यवहारसूत्रम् चतुर्थ उद्देशकः ८५९ (A) आरोविऊण वु४ि नीया। जाया वरिसपणगेण मूडसहस्सा। पुणो वि सेट्ठिणा वरिसपणगानन्तरं सयणवग्गं निमंतेऊण भुत्तुत्तरं सयणसमक्खं तातो सद्दावियातो भणियातो- 'ते मे पंच सालिकणे समप्पेह'। ततो पढमाए अण्णातो ठाणातो आणेऊण समप्पिया, सेट्टिणा सवहसाविता भणिया'ते चेव इमे पंच सालिकण किं वा अन्ने'? तीए कहियं- 'ते मए तया चेव छड्डिया, पुण अण्णे आणीया'। एवं बिइयाए वि, नवरं तीए भुत्ता कहिया। तइयाए ते चेव आणीया, भणियं- आभरणकरंडियाए मए सुरक्खीकया। चउत्थीए भणियं 'ताय! सगडाणि समपिज्जंतु, जेण ते पंच सालिकणा आणिजंते। ततो सेट्ठिणा विम्हिएण पुच्छियं। तीए कहियं जहावत्तं जाव 'जाया मूडसहस्सा'। तओ परितुद्वेण सेट्टिणा भणियं- 'एतीए मज्झ पंच सालिकणा अतीव वुढेि नीयत्ति एसा मम घरस्स सामिणी'। तइया भंडाररक्खिया कया। जीए भुत्ता सा महाणसवावारे निजोइया। पढमा घरबहिकम्मे। तथा चाह- प्रथमया परिहापिता:, द्वितीयया भुक्ताः। तृतीयया तावन्मात्रा धृताः। चतुर्थ्या वुढ़त्ति वर्धिताः ॥ १८९३ ॥ गाथा १८९२-१८९५ पदस्थापनयोग्यस्य परीक्षा एष दृष्टान्तः॥ सम्प्रति दान्तिकयोजनामाह ८५९ (A) For Private and Personal Use Only
SR No.020936
Book TitleVyavahar Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2010
Total Pages540
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vyavahara
File Size15 MB
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