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व्यवहारसूत्रम् तृतीय उद्देशकः ७५९ (A)
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तेण पुच्छिया 'कहिं वच्चह?' तेहिं कहियं 'गंगाए वच्चामो'। ततो तेण गंगं गंतुकामेण अजातो अजासामियाणं निक्खित्ता, अन्नो वा अप्पणो ट्ठाणे अजापालगो कतो, ततो गंगं गतो। गंगाए ण्हाएत्ता पडियागतो। तेण पणो रक्खामित्ति अजा मग्गिया, लद्धा॥
तहा कोइ सिरिघरितो सिरिघरं पालति। अन्नया तेण गंगं संपट्ठिया केइ दिट्ठा, आपुच्छिया, | कहियं 'गंगाए वच्चामो', सो गंगं गंतुकामो सिरिघरसामिस्स कहेत्ता अप्पणो वा ठाणे अण्णं पच्चइयं सिरिघरियं ठवित्ता गतो, गंगाए ण्हाएत्ता पडिआगतो। पुणो लद्धं सिरिघरं। * एवं यो गणावच्छेदक आचार्योपाध्यायो वा गणावच्छेदकत्वादिकं निक्षिप्य मैथुनधर्मं प्रतिसेवते, * स संवत्सरत्रयातिक्रमे लभते पुनराचार्यत्वादिकमिति।।
सूत्रम्- भिक्खू य गणाओ अवकम्म ओहायइ तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए | वा, तिहिं संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि उट्ठियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स निव्वियारस्स, एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव १. ओहाणुप्पेही गच्छेज तिन्नि-प्रतिलिपि पाठः, एवमग्रेऽपि ॥
सूत्र १८
गाथा १५९७-१५९८
भिक्षोः पदयोग्याऽयोग्यता
७५९ (A)
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