________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कारक-निरूपण
३२३
सुपा कर्मादयोप्यर्थाः सङ्ख्या चव तथा तिङाम् :- इसका अभिप्राय यह है कि 'सुप्' तथा 'तिङ' विभक्तियों के 'कर्म' आदि 'कारक' तथा 'संख्या' दोनों ही अर्थ हैं। केवल 'संख्या' अर्थ नहीं है। यहाँ 'सुप्' की दृष्टि से 'कर्म' आदि सभी 'कारक' अभिप्रेत हैं। परन्तु 'तिङ' विभक्तियों के अर्थ की दृष्टि से यहाँ केवल 'कर्ता' तथा 'कर्म' कारक ही अभिप्रेत हैं, क्योंकि 'तिङ' के द्वारा इन्हीं दो का कथन होता है।
नागेशभट्ट ने यहाँ दीक्षित की कारिका तथा महाभाष्य में उद्ध त वचन को इसलिये प्रस्तुत किया है कि यदि प्रथमा तथा सम्बोधन विभक्तियों में 'कारकता' ('क्रियाजनकता') न मानी जाय तो ये दोनों ही उपर्युक्त कथन निरर्थक एवं असंगत हो जाते हैं।
['कारक' की दूसरी परिभाषाओं के विषय में विचार]
ननु 'क्रिया-निमित्तत्वं कारकत्वम्' इति स्वीकार्यम् इति चेत् ? न । 'चैत्रस्य तण्डुलं पचति' इत्यत्र सम्बन्धिनि चैत्रादौ अतिव्याप्तेः । अनुमत्यादि-प्रकाशन-द्वारा सम्प्रदानादेर् इव तण्डुलादि-द्वारा सम्बन्धिनोऽपि क्रियानिमित्तत्वात् । किन्तु 'क्रियाऽन्वित-विभक्त्यर्थान्वितत्वम्', 'क्रिया-निर्वतकत्वम्' वा कारकत्वम् । विशेष्यतया क्रिया सुप-तिङ -अन्यतर-विभक्त्यर्थेऽन्वेति । स च विशेष्यतयैव चैत्र-घटादौ । षष्ठ्यर्थस्य तण्डुलादि-नामार्थान्विततया क्रियाऽनन्वितत्वात् । अत एव षष्ठ्यर्थस्य उपपद-विभक्त्यर्थस्य च न कारकत्वं क्रियान्वयाभावाद् इति शाब्दिकाः। उपपद-विभक्तीनाम् अपि सम्बन्ध एव अर्थः। 'चैत्रस्य पचति' इत्यादाव् अपि तण्डुलादि-पदाध्याहारेणैव बोधः । षष्ठ्यर्थ सम्बन्धस्य नामार्थेनैव, क्रियायाः कर्मत्वादिनैव, साकांक्षत्वेन सम्बन्ध
क्रिययोः निराकांक्षत्वात् । यदि यह कहा जाय कि "क्रिया का कारण बनना कारकता (की परिभाषा) है" यह मानना चाहिये तो वह उचित नहीं क्योंकि 'चैत्रस्य तण्डुलं पचति' (चैत्र के चावल को पकाता है) यहाँ सम्बन्धी 'चैत्र' आदि में अतिव्याप्ति होगी। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार (अपनी) अनुमति आदि देने के द्वारा 'सम्प्रदान' आदि ('कारक') क्रिया के कारण बनते है उसी प्रकार सम्बन्धी भी तण्डुल आदि (देने) के द्वारा क्रियानिमित्त हो सकता है।
For Private and Personal Use Only