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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३२२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा इत्यभियुक्तोक्तम्, "सुपां कर्मादयोऽप्यर्थाः सङ्ख्या चैव तथा तिङाम्" इति भाष्यं (१.४.२१) च सङ्गच्छते । प्रनुक्तकर्त्रादिषु तृतीयादयो विभक्तयः, अनभिहिताधिकारे तासां विधानाद् । इत्यन्यत्र विस्तरः । इसीलिये (प्रथमा तथा सम्बोधन दोनों में क्रियाजनकता होने के कारण ) " सुपां कर्मादयो० " इस भाष्य ( में उद्धृत कारिका) के अनुसार अपनी अपनी योग्यता की दृष्टि से 'ग्राश्रय', 'अवधि', 'उद्देश्य', 'सम्बन्ध' अथवा केवल ( श्राश्रयत्व प्रादि ) 'शक्ति' (प्रथमा आदि) विभक्तियों के अर्थ हैं" यह (भट्टोजि दीक्षित जैसे ) विद्वान् का कथन तथा "सुप्' (विभक्तियों) के 'कर्म' आदि ('कारक') भी अर्थ हैं तथा 'सङ्ख्या' भी (अर्थ) है और उसी प्रकार 'तिङ' विभक्तियों के भी ( 'कर्त्ता', 'कर्म' तथा 'सङ्ख्या' प्रर्थ हैं ) " यह भाष्य (का उल्लेख ) सुसंगत होता है । 'कर्त्ता' आदि के कथित होने पर तृतीया आदि विभक्तियाँ होती हैं क्योंकि "अनभिहिते" ( पा० २.३.१ ) के अधिकार में इन विभक्तियों का विधान किया गया है । इस विषय का अन्यत्र (लघुमंजूषा आदि ग्रन्थों में) विस्तार से वर्णन है । श्राश्रयोऽवधिः "प्रभियुक्तोक्तम् :- वैयाकरणभूषरण तथा वैयाकरण भूषरणसार दोनों ग्रन्थों में भट्टोजि दीक्षित की यह कारिका उद्धृत एवं व्याख्यात मिलती है । यहाँ ग्रन्थकार कौण्डभट्ट ने इस कारिका की व्याख्या में प्रथमा विभक्ति की कोई चर्चा नहीं की है । परन्तु "तिसमानाधिकरणे प्रथमा" इस वार्तिक के अनुसार प्रथमा विभक्ति के भी 'कर्ता' या 'कर्म' अर्थ होते हैं । ग्रतः, द्वितीया आदि विभक्तियों के समान, प्रथमा विभक्ति का भी 'आश्रय' अर्थ माना गया । भट्टोज दीक्षित की इस कारिका का अभिप्राय यह है कि महाभाष्य में 'सुप्' तथा 'तिङ' विभक्तियों के 'कर्म' आदि कारक तथा 'सङ्ख्या' अर्थ कहे हैं इसलिये, उस कथन के आधार पर, 'प्रथमा' आदि विभक्तियों के 'कर्ता', 'कर्म' आदि की अपनी योग्यता या सामर्थ्य की दृष्टि से, 'प्राश्रय,' 'अवधि', 'उद्देश्य' तथा 'सम्बन्ध' अर्थ हैं । 'कर्त्ता' अथवा 'प्रातिपदिकार्थ' तथा 'सम्बोधन' को कहने वाली प्रथमा, 'कर्म' को कहने वाली द्वितीया, 'कर्त्ता' तथा 'करण' को कहने वाली तृतीया तथा 'अधिकरण' को कहने वाली सप्तमी - इन विभक्तियों का अर्थ 'आश्रय' हैं । 'अपादान' को कहने वाली पंचमी विभक्ति का अर्थ 'अवधि' है । 'सम्प्रदान' को कहने वाली चतुर्थी का अर्थ 'उद्देश्य' है तथा 'शेष' प्रर्थ वाली षष्ठी और 'उपपद' विभक्तियों का 'सम्बन्ध' अर्थ है । शक्तिरेव वा : - इस कारिकांश से यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि या तो 'सुप्' आदि विभक्तियों का यथायोग्य 'आश्रय' आदि अर्थ माना जाय अथवा इन आश्रय आदि में रहने वाली 'शक्ति' अर्थात् 'प्राश्रयत्व', 'अवधित्व', उद्देश्यत्व' तथा 'सम्बन्धत्व' को उन उन विभक्ति का अर्थ मानना चाहिये । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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