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कारक-निरूपण
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अर्थात् जो पहले से ही सिद्ध (विद्यमान) है उसी को वक्ता अपने अभिमुख करता है। इसी कारण सम्बोध्य में सम्बोध्यता रूप धर्म के सिद्ध (विद्यमान) न होने पर उस रूप में सम्बोधन नहीं किया जा सकता। जैसे राजपुत्र के लिये, कुमारावस्था में, 'राजन् ? युध्यस्व' (हे राजन् युद्ध कीजिये) अथवा किसी राजा के लिये 'राजा भव' (राजा बनो) जैसे प्रयोग नहीं किये जाते। इसी बात को भर्तृहरि ने निम्न कारिका में प्रकट किया
सिद्धस्याभिमुखीभावमात्रं सम्बोधनं विदुः । प्राप्ताभिमुख्यो ह्यर्थात्मा क्रियासु विनियुज्यते ।।
(वाप० ३.७.१६३) 'सिद्ध' अर्थात् पहले से विद्यमान अनभिमुख व्यक्ति के अभिमुख होने को सम्बोधन कहा गया है। अभिमुखता को प्राप्त हुअा व्यक्ति क्रियानों में लगाया जाता है।
इसलिये, जिस प्रकार 'संख्या' का अन्वय उसके प्रकृत्यर्थ में होता है उसी प्रकार, अनुवादिका सम्बोधन-विभक्ति का भी अन्वय उसके प्रकृत्यर्थ में (जिसे यहाँ 'युष्मद्' शब्द का अर्थ) कहा गया है उसमें 'पाश्रयता' सम्बन्ध से अभेदरूप में होता है। वक्ता की प्रेरणा का उद्देश्य प्रकृत्यर्थ है इसलिये उस 'उद्देश्यता' सम्बन्ध से प्रकृत्यर्थ का प्रेरणा में अन्वय होता है। उदाहरण के लिये जब 'देवदत्त ? त्वं गन्छ' (देवदत्त तुम जानो) यह कहा जाता है तो पहले 'देवदत्त' का 'त्वम्' के साथ 'अभेद' सम्बन्ध से अन्वय होता है और उसके बाद 'देवदत्त' से अभिन्न 'त्वम्' का गमन-विषयक प्रेरणा में अन्वय होता है। फिर अन्त में 'देवदत्त' से अभिन्न 'त्वम्' है उद्देश्य जिस में ऐसी 'प्रेरणा' का अपने विषय भूत 'गमन' क्रिया में अन्वय होता है। इसी कारण यहाँ "अभिमुख होने वाले 'देवदत्त' से अभिन्न 'त्वम्' है उद्देश्य जिसका ऐसी प्रेरणा का विषय 'गमन' क्रिया" यह शाब्द बोध होता है।
___ इस प्रकार सम्बोध्य 'देवदत्त' का पहले 'त्वम्' में फिर 'प्रेरणा' में और अन्त में 'क्रिया' में अन्वय होता है। अतः परम्परया 'क्रिया' में अन्वय होने के कारण, प्रथमा विभक्ति या 'अधिकरण' के समान, क्रिया-जनकतारूप 'कारकता' सम्बोधन विभक्ति में भी माननी चाहिये। द्र०- "एतन्मूलकम् एव सम्बोधनस्य कर्तृकारकत्वव्यवहारो वृद्धानाम् । तस्यैव त्वम्पदार्थत्वेन विनियोज्यक्रियाकर्तृत्वात् । अत एव 'तिङ्समानाधिकरणे प्रथमा' इति वार्तिकमते प्रथमासिद्धिः । "तस्मात् 'कर्तृकारकत्वं सम्बोधनस्य' इति वृद्धोक्तं साध्वेव” (लम०, पृ० ११६०-६१) ।
[प्रथमा तथा सम्बोधन की 'कारकता' में प्रमाण
अत एवआश्रयोऽवधिरुद्देश्यः सम्बन्धः शक्तिरेव वा । यथायथं विभक्त्यर्थाः सुपां कर्मेति भाष्यतः ।।
(वैभूसा०, पृ० १६८)
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