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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
यहां 'चैत्रेण ग्रामो गम्यते' में जो शाब्द बोध दिखाया गया उसकी प्रक्रिया यह है-कर्मवाच्य में 'कर्ता' के लिये प्रयुक्त तृतीया विभक्ति का अर्थ है आश्रय । द्र० - 'कर्तृ-तृतीयाया पाश्रयोऽर्थः' (वैभूसा० १० १८३)। उसमें 'चैत्र' शब्द के पदार्थ (प्रातिपदिकार्थ) का 'अभेद'सम्बन्ध से अन्वय होगा। इस चैत्ररूप कर्ता के आश्रय में रहने के कारण 'गम्' धातु के अर्थ गमन 'व्यापार' का इस आश्रय में अन्वय होगा। इस 'व्यापार' से संयोग उत्पन्न होता है। इसलिये 'जन्यत्व' सम्बन्ध से चैत्र रूप आश्रय में रहने वाले 'व्यापार' का संयोग से अन्वय होगा ('चैत्र-कर्तृक-व्यापार-जन्यः-संयोगः')।
दूसरी ओर 'कर्म' को कहने वाले 'पाख्यात' प्रत्यय का अर्थ भी आश्रय है । उस आश्रय का 'अभेद' सम्बन्ध से 'ग्राम' के साथ अन्वय होगा। उसके बाद, संयोग ग्रामनिष्ठ है इसलिये, 'वृत्तित्व' सम्बन्ध से ग्रामरूप आश्रय का संयोग के साथ अन्वय होगा। इसी प्रकार 'पाख्यात' के अर्थ 'एकत्व' रूप सङ्ख्या का भी 'समवाय' सम्बन्ध से 'ग्राम' में अन्वय हुआ (एकत्वावच्छिन्न-ग्रामाभिन्न-कर्म-निष्ठः संयोगः)। इस प्रकार आख्यात के कर्मवाचक होने पर 'फल' (संयोग आदि) की मुख्यरूप से प्रतीति होती है।
['सम्बोधन' में होने वाली प्रथमा विभक्ति की 'कारकता']
सम्बोधन-प्रथमार्थस्यापि अनुवाद्यत्वेन उद्देश्यतया युष्मदाभेदेन विधेय-क्रियायाम् अन्वयात् क्रियाजनकत्वरूपं कारकत्वम् । 'देवदत्त ? त्वं गच्छ' इत्यादौ 'अभिमुखीभवद्-देवदत्ताभिन्न-युष्मद्-अर्थोद्देश्यक-प्रवर्तनादि-विषयो गमनम्' इति बोधः ।
सम्बोधन (रूप) प्रथमार्थ को भी क्रियाजनकत्वरूप 'कारकता' इस कारण (उपपन्न हो जाती है कि अनुवाद्य होने के कारण उद्देश्य होने से 'युष्मद्' शब्द के अर्थ के साथ 'अभेद' सम्बन्ध से अन्वित होकर वह विधेयभूत क्रिया में अन्वित होता है । 'देवदत्त' ? त्वं गच्छ' (देवदत्त तुम जाओ) इत्यादि (प्रयोगों) में “जो अभिमुख नहीं था पर अभिमुख हो रहा है ऐसे देवदत्त से अभिन्न जो 'युष्मद्' शब्द का अर्थ वह है उद्देश्य जिसमें तथा जो प्रेरणा का विषय है ऐसा गमन (व्यापार)" यह बोध होता है।
आचार्य पाणिनि ने “सम्बोधने च" (पा० २.३.४७) सूत्र के द्वारा भी प्रथमा विभक्ति का विधान किया है। अतः प्रथमा का एक अर्थ 'प्रातिपदिकार्थयुक्त सम्बोधन' भी है। यहाँ यह विचारणीय है कि इस प्रथमार्थ को 'कारक' किस प्रकार माना जाय क्योंकि इसमें क्रियोत्पादकता तो है नहीं ?
___ इसका उत्तर यहाँ दिया गया है । सम्बोधन का अभिप्राय है जो वक्ता के अभिमुख नहीं है उसका अभिमुख होना । इसका 'फल' है कार्य में प्रवृत्त होना या कार्य से निवृत्त होना। सम्बोधन अर्थ वाली इस प्रथमा विभक्ति को 'अनुवाद्य-विषया' कहा गया है,
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