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लकारार्थं निर्णय
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होने के कारण वह (उपर्युक्त व्युत्पत्ति) मानने योग्य नहीं है - ऐसा नहीं कहना चाहिये क्योंकि 'जहाँ जहाँ (जिस शब्द में ) प्रत्ययता है वहां वहां (उस उस शब्द में) प्रकृति के अर्थ से अन्वित स्वार्थ की बोधकता रहती है' यह व्याप्ति है । तथा 'जो जो प्रत्यय का अर्थ है वह वह प्रकृति के अर्थ के प्रति विशेष्य बनकर प्रकट होता है' - यह भी व्याप्ति है ।
एक परिभाषा यह मानी गयी है कि प्रत्यय अपने सम्बन्धी प्रकृति के अर्थ से अन्वित होकर ही अपने अपने अर्थ का बोध कराते हैं : - ' प्रत्ययानां प्रकृत्यर्थान्वितस्वार्थबोधकत्वम्' । यदि यह परिभाषा न मानी जाय तो 'दण्डिनम् श्रानय' इत्यादि प्रयोगों में 'द्वितीया' विभक्तिरूप प्रत्यय के अर्थ कर्मत्व' का अन्वय, सदा 'दण्डी में ही न होकर 'दण्ड' में भी हो सकेगा - यह एक अनिष्ट स्थिति होगी । अतः इस परिभाषा को मानना आवश्यक है ।
इस व्युत्पत्ति या परिभाषा को मानते हुए यह प्रश्न किया गया कि 'न हन्तव्यः' जैसे प्रयोगों में 'प्रबल ग्रनिष्ट का निमित्त न होना' रूप जो अर्थ हैं वह 'तव्यत्' प्रत्यय का है - इसलिए वह प्रत्ययार्थ है । इस प्रत्ययार्थ का प्रन्वय धातु ( ' हन्') के अर्थ में ही हो सकता है । 'न' के अर्थ 'प्रभाव' या 'निषेध' में उसका अन्वय नहीं होना चाहिए । इस कारण 'नव्' के द्वारा 'बलवद्-अनिष्ट प्रननुबन्धित्व' के निषेध की बात जो ऊपर कही गई है वह उचित नहीं है ।
इस कठिनाई का और कोई समाधान न मिलने के कारण इस प्रकार के निषेधयुक्त वाक्यों को उस परिभाषा या व्युत्पत्ति का अपवाद मान लिया गया। इसका अभिप्राय यह हुआ कि ऐसे स्थलों से अतिरिक्त प्रयोगों के लिए ही, जहां विध्यर्थक प्रत्ययों का प्रयोग न किया गया हो, उपर्युक्त व्युत्पत्ति प्रस्तुत होती है ।
श्रत एव नातिरात्रे दीधितिकृतः - इस प्रकार का एक और प्रयोग है "नातिरात्रे षोडशिनं गृहपति" ( द्र० -- जैमिनिन्यायमालाविस्तर १०.८.३.६) 'गवामयन' नामक सोमयाग की प्रथम 'संस्था' का नाम 'प्रतिरात्र' है । ' षोडशी' एक पात्र विशेष का नाम है जिसमें सोमरस रखा जाता है । इस 'प्रतिरात्र' नामक सोमसंस्था में ' षोडशी ' पात्र प्रयोग में लाया जाये अथवा न लाया जाय- ये दोनों प्रकार के मत ब्राह्मणों में मिलते हैं। यहां दूसरे मत के प्रतिपादक वाक्य को प्रस्तुत किया गया है । इस वाक्य का अर्थ करते हुए, तार्किक - शिरोमणि श्री रघुनाथ भट्टाचार्य ने, जिन्होंने गङ्गेश उपाध्याय के तत्त्व चिन्तामरिण नामक प्रबन्ध की 'दीधिति, नामक टीका की रचना की, 'नव्' के अर्थ 'अभाव' या 'निषेध' के साथ ही 'विधि' रूप प्रत्ययार्थ का अन्वय किया है । अत: इस प्रकार के निषाधर्थक स्थलों में उपर्युक्त नियम के अपवाद के रूप में 'नज्' के अर्थ के साथ ही प्रत्ययार्थ का अन्वय मान लेना चाहिए - यह अभिप्राय यहां की पंक्तियों में प्रकट किया गया है ।
न हन्तव्य "गुरव:- : - प्रभाकर के अनुयायी मीमांसक विद्वानों को यहां 'गुरवः' शब्द से उद्धत किया गया है । वस्तुतः 'प्रभाकर' को 'गुरु' शब्द से अभिहित किया जाता है, अतः उनके अनुयायियों के लिये भी इस शब्द का प्रयोग किया जाने लगा ।
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