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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१० वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा प्रभाकर के अनुयायी ये विद्वान् 'न हन्तव्यः' का अर्थ करते हैं-'ब्राह्मण-हनन के प्रभाव से उत्पन्न होने वाला पुण्य' । वे हनन का 'न' के अर्थ 'अभाव' में अन्वय करते हुए, 'अभाव' का 'लिङ' लकार के अर्थ 'अपूर्व' में अन्वय करते हैं। उनका कहना है कि 'हनन' तथा 'अभाव' में 'स्वप्रतियोगिकता', अर्थात् 'स्वकीयाभाव' सम्बन्ध है तथा इसी प्रकार 'अभाव' तथा 'अपूर्व' में 'प्रयोज्यता' सम्बध है, अर्थात् 'अभाव' का 'अपूर्व' प्रयोज्य है। हननाभाव से 'अपूर्व' की उत्पत्ति होती है। इस तरह उनकी दृष्टि में 'ब्राह्मण-हननाभाव से उत्पन्न होने वाला पुण्य' यह अर्थ उपपन्न होता है। इन विद्वानों के विपरीत, जैसा कि ऊपर दिखाया जा चुका है, नैयायिकों की दृष्टि में 'ब्राह्मणों न हन्तव्यः' का अर्थ है--- 'ब्राह्मण का वध अनिष्ट का उत्पादक है', न कि 'ब्राह्मण के वध का अभाव पुण्यजक है'। ननु 'पचति' इत्यादौ....'व्याप्तेश्च-उपर्युक्त 'प्रत्ययानां प्रकृत्यान्वित-स्वार्थबोधकत्वम्', परिभाषा के विषय में यहां यह प्रश्न किया गया है कि 'पचति' जैसे प्रयोगों में 'लट' आदि प्रत्ययों के अर्थ 'वर्तमानत्व' आदि का 'यत्न' रूप अर्थ में ही अन्वय होता है जो 'पच्' रूप 'प्रकृति' का अर्थ नहीं है। ऐसी स्थिति में उस परिभाषा (व्युत्पत्ति) को कैसे माना जाय ? __इस प्रश्न का उत्तर यह दिया गया कि इन 'पचति' इत्यादि प्रयोगों में परिभाषा से कोई विरोध नहीं आता क्योंकि उसका प्राशय यह है कि जो जो प्रत्यय होगा-जिस जिस में प्रत्ययता होगी - उस उस में प्रकृत्यर्थ से अन्वित होकर स्वार्थ की बोधकता भी होगी। साथ ही यह भी कि जो जो प्रत्यय का अर्थ होगा वह वह प्रकृत्यर्थ के प्रति विशेष्य होकर प्रकट होगा। ये दोनों ही व्याप्तियां 'पचति' आदि में 'लट्' आदि प्रत्ययों तथा उनके अर्थों में विद्यमान हैं। वह इस प्रकार कि 'लट्' प्रत्यय अपनी प्रकृतिभूत धातु के अर्थ से अन्वित होने वाले अपने 'वर्तमानत्व' आदि अर्थ का बोध कराता है। यहां यह नियम या व्याप्ति नहीं मानी जाती कि 'केवल प्रकृत्यर्थ से ही प्रत्यय का अपना अर्थ अन्वित हो'। इसलिये 'लट्' आदि प्रत्यय के अर्थ 'वर्तमानत्व' आदि का 'यत्न' में, जो प्रकृत्यर्थ नहीं हैं, अन्वय होने पर भी नियम-भङ ग नहीं होता क्योंकि 'यत्न' के साथ धात्वर्थ में भी प्रत्ययार्थ का अन्वय माना ही जाता है। दूसरी व्याप्ति – 'प्रत्ययार्थ का प्रकृत्यर्थ के प्रति विशेष्य होना'-भी 'पचति' आदि में है ही क्योंकि प्रत्यय का अर्थ 'वर्तमान-कालिक यत्न' प्रकृति के अर्थभूत 'पाक' का विशेष्य है। इस तरह 'पचति' आदि प्रयोगों में उस परिभाषा से कोई विरोध नहीं उपस्थित होता। ['लेट्' लकार के अर्थ के विषय में विचार] लेटस्तु यच्छब्दासमभिव्याहृतस्य एव विधिर् अर्थः । "समिधो यजति" इत्यादौ 'विधि'-प्रत्ययात् । 'देवांश्च याभिर्यजते ददाति च", "य' एवं विद्वान् अमावास्यायां यजते' इत्यादौ तदप्रत्ययाद् इति । १. ह. में 'य' पद नहीं है। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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