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वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
अर्थ वाला होने के कारण, प्रस्तुत किया गया है तथा उसके ग्राधार पर समुदाय में 'शक्ति' मानने के सिद्धान्त का खण्डन किया गया है ।
[ " प्रत्ययानां प्रकृत्यर्थान्वित स्वार्थ- बोधकत्वम्" इस परिभाषा के प्रकाश में 'ब्राह्मणो न हन्तव्यः' इस वाक्य के अर्थ के विषय में पुन: विचार ]
यद्यपि 'प्रकृत्यर्थान्वित - स्वार्थ- बोधकत्वं प्रत्ययस्य' इति व्युत्पत्त्या नर्थे बलवद्-अनिष्टाननुबन्धित्वान्वयोs सम्भवी । तथाप्यन्यथानुपपत्त्या एतदतिरिक्तस्थले एव सा व्युत्पत्तिः । अतएव " नातिरात्रे षोडशिनं गृह्णाति " इत्यादौ ' षोडशि - ग्रहणाभाव इष्ट- साधनम्' इति बोध इति दीधितिकृत:' । ' न हन्तव्यः' इत्यादौ ' हननाभाव - विषयकं कार्यम्' इति बोध इति गुरवः ।
ननु ' पचति' इत्यादी लडाद्यर्थ- वर्तमानत्वादेर् यत्ने एव ग्रन्वयान् न सा व्युत्पत्तिः । मैवम् । 'यत्र प्रत्ययत्वं तत्र प्रकृत्यर्थान्वित-स्वार्थबोधकत्वम्' इति व्याप्तेः । यः प्रत्ययार्थः स प्रकृत्यर्थस्य विशेष्यतया भासते' इति व्याप्तेश्च ।
यद्यपि 'प्रत्यय प्रकृत्यर्थं से अन्वित स्वार्थं का बोधक होता है' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'नञ्' के अर्थ ('प्रभाव') में 'प्रबल दुख की अनुत्पादकता' (रूप 'लिङ्' प्रत्यय के अर्थ ) का अन्वय असम्भव है फिर भी किसी और तरह से अर्थ की सङगति न लगने के कारण इस ('नञ्' से युक्त 'लिङ' आदि के प्रयोगों) से अतिरिक्त स्थल के लिये ही वह (व्युत्पत्ति ) है । इसीलिये 'नातिरात्रे षोडशिनं गृह्णाति' ('अतिरात्र' में ' षोडशी' पात्र का ग्रहण न करे ) इत्यादि ( प्रयोगों) में ' षोडशी (पात्र) के ग्रहण का प्रभाव ही इष्ट का साधन है' यह बोध होता है - यह दीधितिकार ( तार्किक शिरोमणि श्री रघुनाथ भट्टाचार्य) का कहना है । ' न हन्तव्यः' इत्यादि में हननाभाव विषयक 'कार्य' ('अपूर्व' या पुण्य) यह ज्ञान होता है - ऐसा प्रभाकर के अनुयायी ( मीमांसक) मानते हैं ।
'पचति' ( पकाता है) इत्यादि (प्रयोगों) में 'लट्' आदि ( प्रत्ययों) के अर्थ 'वर्तमान काल' आदि का ( जो प्रकृत्यर्थ नहीं है उस ) 'यत्न' में ही अन्वय
१. तुलना करो - श्री रघुनाथ शिरोमणिकृत शब्दखण्डे नञ्वाद :- बी० के० मतिलाल सम्पादित, हारवर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, १८६८, पृ० १८२
अत्र षोडशिग्रहणं नेष्टसाधनम् इत्यादिकम् अर्थो ग्रहणविधिविरोधात् । अपितु षोडशिग्रहणाभाव इष्टसाधनम् इत्यादिकम् ।
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