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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६४ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा कुमारिल भट्ट तथा उनके अनुयायी मीमांसक विद्वान् 'लकार' का अर्थ 'व्यापार' मानते हैं-ये लोग व्यापार को धातु का अर्थ नहीं मानते । नैयायिकों का इन दोनों से भिन्न मत है । ये विद्वान् लकार' का अर्थ 'यत्न' मानते हैं। तत्र कति कर्तु: परामर्शात्-वैयाकरण विद्वान् लकार' का अर्थ 'कर्ता' किस आधार पर मानते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यहां दिया गया है । 'लकारों' का अर्थ 'कर्ता' मानने में प्रमुख हेतु है पाणिनि का "ल: कमरिण च०" यह सूत्र । इस सूत्र के दो विभाग किये जाते हैं--"ल: कर्मणि च” तथा “भावे च अकर्मकेभ्यः'। इन दोनों भागों में विद्यमान 'च' पद के द्वारा, पूर्ववर्ती "कर्तरि कृत्" (पा० ३।४।६७) सूत्र से, 'कर्तरि' पद का अनुकर्षण किया जाता है । इस कारण "लः कर्मणि' सूत्र का अर्थ है-"सकर्मक धातुओं से सम्बद्ध 'लकार' 'कर्म' तथा 'कर्ता' को कहते हैं तथा "अकर्मक' धातुओं से सम्बद्ध 'लकार' 'कर्ता' तथा 'भाव' को कहते हैं" । द्र०-'लकाराः सकर्मकेम्यः कर्मणि कर्तरि च स्युः, अकर्मकेम्यः भावे कर्तरि च' (सिकौ० ३.४.६८) व्यापार इति भाट्टाः-कुमारिल भट्ट के अनुयायी मीमांसक विद्वान् धातु का अर्थ 'फल' मानते हैं तथा 'लकार' का अर्थ 'व्यापार' मानते हैं। इस बात की भी चर्चा ऊपर धात्वर्थ-विचार के प्रकरण में की जा चुकी है। इन विद्वानों का कहना है कि 'कर्ता' 'व्यापार' का प्राश्रय है इसलिये उसका ज्ञान तो लक्षणा वृत्ति से, बिना उसे लकारार्थ माने ही, हो जायेगा । अत: "अनन्यलभ्यः शब्दार्थः” इस न्याय के अनुसार 'कर्ता' को लकारार्थ मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। इन मीमांसकों के अनुसार किसी विशेष प्रयोजन को पूरा करने की इच्छा से उत्पन्न क्रियाविषयक मानसिक प्रवृत्ति ही व्यापार' है । इस मानसिक प्रवृत्ति को मीमांसकों ने 'प्रार्थी भावना' नाम दिया है । यह 'व्यापार' या 'प्रार्थी भावना' क्रिया पद के 'पाख्यात' (लकार) ग्रंश का वाच्य अर्थ है क्योंकि आख्यात सामान्यतया 'व्यापार का वाचक है। द्र० -"प्रयोजनेच्छाजनितक्रियाविषयव्यापार प्रार्थी भावना। सा च आख्यातत्वांशेन उच्यते । प्राख्यातसामान्यस्य व्यापारवाचित्वात्” (अर्थसंग्रह ८)। 'यत्नः' इति नैयायिकाः- नैयायिक विद्वान् 'फल' तथा 'व्यापार' को धातु का अर्थ मानते हैं तथा 'लकार' का अर्थ 'कृति' अथवा 'यत्न' मानते हैं। इस मत की भी चर्चा तथा इसका खण्डन ऊपर धात्वर्थ-विचार के प्रकरण में विस्तार से किया जा चुका है । द्र०—“यत्तु तार्किकाः फलव्यापारौ धात्वर्थः । लकाराणां कृतावेव शक्तिौरवात्'--- इत्यादि (पृ० १६०-१७२) । युक्तं चैतत्-अपने मत की पुष्टि में नैयायिक यह कहते हैं कि 'लकार' का वाच्यार्थ, वैयाकरण मत के अनुसार, 'कर्ता', अथवा मीमांसक मत के अनुसार, 'व्यापार' मानने मे गौरव है । परन्तु नैयायिकों के मत के अनुसार 'कृति' (यत्न) अर्थ मानने में लाघव है। यदि लकारों का अर्थ 'कर्ता' माना गया तो, कर्ता 'कृति' से युक्त होता है इसलिए, प्रत्येक 'कर्ता' के अनुसार 'कृति' भिन्न भिन्न रूप में उपस्थित होगी। अनन्त रूपों में 'कृति' का उपस्थित होना ही गौरव है । 'कृति' अर्थ मानने में यह गौरव (विस्तार) का For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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