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लकारार्थ निर्णय
दोष नहीं आता क्योंकि सभी 'कृतियों' में कृतित्व जाति के एक होने के कारण उसे वाच्यार्थता का आधार मानने में लाघव बना ही रहता है । इसके अतिरिक्त 'कर्ता' को वाच्यार्थ मानने का अर्थ है ' कृतिमान्' को वाच्य मानना । इसलिये 'कृति' की अपेक्षा 'कृतिमान' के 'गुरु' होने के कारण भी 'कर्ता' को वाच्यार्थ मानने में गौरव है । साथ ही वाक्य के प्रथमा विभक्त्यन्त पद से ही 'कर्ता' के बोध होजाने के कारण, "अनन्य लभ्यः शब्दार्थः” इस न्याय के अनुसार भी, 'लकार' का अर्थ 'कर्ता' नहीं मानना चाहिये ।
इसी प्रकार, मीमांसकों के मतानुसार, 'व्यापार' को 'लकार' का वाच्यार्थ मानने में भी गौरव है क्योंकि 'व्यापार' की परिभाषा की गयी है-" धात्वर्थफल - जनकत्वे सति धातुवाच्यत्वम्", अर्थात् धातु के अर्थ 'फल' का उत्पादक होते हुए जो धातुवाच्य हो वह 'व्यापार' है । इसलिये 'व्यापार' को वाच्यार्थ मानने का अभिप्राय है एक इतनी लम्बी परिभाषा 'लकार' के अर्थ के साथ सदा चिपटी रहे। इस रूप में वाच्यार्थता का आकार लम्बा या गुरु होने के कारण 'व्यापार' को वाच्यार्थ मानने में गौरव है । 'कृति' को लकारार्थ मानने में इस प्रकार का कोई भी दोष नहीं आता । अतः लाघव के कारण 'कृति' जाति अथवा 'यत्न' को 'लकार' का अर्थ मानना ही युक्त है ।
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यत्नत्वस्यैव शक्यतावच्छेदकत्वात् - 'शक्य' अर्थात् वाच्यार्थ का वह असाधारण 'धर्म' जो केवल वाच्य अर्थ में ही रहता हो उसे 'शक्यतावच्छेदक' कहा जाएगा। जैसे'घट' शब्द का शक्यतावच्छेदक धर्म 'घटत्व' है क्योंकि 'घटत्व' केवल घट में ही रहता है । इसी रूप में यहां 'यत्नता' ही 'लकार' का शक्यतावच्छेदक धर्म है ।
१. काप्रशु० - शक्त्यता ।
२.
०
३.
ह० - लकारस्यैव ।
४. ह० – बहु |
५. ह० - अनुरोधाद् ।
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दशलकारसाधारणम् ।
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['लकार' को ही वाचक मानना युक्त हैं उसके स्थान पर आने वाले 'तिप्' श्रादि 'श्रादेशों' को नहीं ]
शक्ततावच्छेदकं च लकारसाधारणं लत्वम् एव । 'भवति' इत्यादौ च प्रादेशेन प्रादेशिनो लस्यैव स्मरणाद् अन्वयधीः । ग्रादेशेषु बहषु शक्तिकल्पने गौरवात्, तदस्मरणे च शक्तिभ्रमाद् एव प्रन्वयधीः । 'चैत्रो गन्ता', 'गतो ग्रामः' इत्यादी सामानाधिकरण्यानुरोधेन यथायथं कर्तृकर्मणी कृवाच्ये । न चैव "लटः शतृशान चौ० " ( पा० ३.२.१२४ ) इत्यनेन शतृशानचोर् प्रादेशत्वात्
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