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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
(पा० ३.२.१२४) सूत्र के द्वारा उसी प्रकार 'लकार' के स्थान पर आते हैं जिस प्रकार 'तिप्' आदि विभक्तियां।
न चेष्टापत्ति:-यहां यह कह कर इस दोष का निवारण नहीं किया जा सकता कि इन उपर्युक्त दोनों प्रयोगों में क्रमशः 'कृति' के आश्रय 'कर्म' तथा 'सम्प्रदान' हैं इसलिये, 'आश्रयाश्रयी' सम्बन्ध से, 'लकार' का अर्थ केवल 'कृति' मानने पर भी, 'कृति' के द्वारा उन 'कर्म' तथा सम्प्रदान' का प्राक्षेप हो जाया करेगा क्योंकि एक न्याय है-"नामार्थयोर्भेदेन साक्षाद् अन्वयोऽव्युत्पन्न:"-जिसका अभिप्राय है कि समान विभक्ति वाले दो प्रातिपादिकों के अर्थों में भेद सम्बंध से उन दोनों का साक्षात् सम्बन्धबोध नहीं हुआ करता, या दूसरे शब्दों में अभेद सम्बन्ध से ही दो समान विभक्ति वाले प्रतिपदिकार्थों का परस्पर सम्बन्ध होता है। जैसे ---'नीलो घट:' (नीला घड़ा) इस प्रयोग में दोनों प्रातिपदिकार्थों का अभेदरूप से ही परस्पर सम्बन्ध अभीष्ट है-भेद सम्बन्ध से नहीं। यहाँ 'पचन्तम्' तथा 'चैत्रम्' अथवा 'पचन्तम्' तथा 'देवदत्तम्' दोनों ही प्रातिपदिक हैं तथा समान विभक्ति वाले हैं। अतः उनके अर्थों में 'अभेद' सम्बन्ध के अतिरिक्त और कोई भी सम्बन्ध-'पाश्रयाश्रयिभाव' आदि-नहीं स्वीकार किया जा सकता।
ननु फलमुखगौरवं इति न्यायात्- 'शतृ' तथा 'शानच्' प्रत्ययान्त शब्दों में उपस्थित होने वाले इस दोष के निवारण के लिये यह कहा जा सकता है कि --- 'शतृ'
आदि का अर्थ 'कारक' है तथा 'तिप्' आदि विभक्तियों का अर्थ केवल 'कृति' है। ऐसा मानना गौरवयुक्त होते हुए भी दोषावह इसलिये नहीं है कि किसी विशेष प्रयोजन की सिद्धि के लिये अपनाया गया गौरव (विस्तार) दोष नहीं होता--- "फलमुखगौरवं न दोषाय"-यह एक न्याय है।
परन्तु यह कथन इसलिये स्वीकार्य नहीं है कि स्वयं नैयायिक यह मानता है कि लाघव के कारण 'स्थानी' ('लकार') ही वाचक होता है, 'लकार' के स्थान पर आने वाले 'आदेश' नहीं क्योंकि 'आदेश' अनेक होते हैं, इसलिये उन्हें 'वाचक' मानने में गौरव (विस्तार) है। नैयायिकों के ही इस मान्यता के आधार पर यहाँ भी वास्तविक वाचक तो 'लकार' ही है । 'तिप्' और 'शतृ' आदि 'आदेश' तो, लिपि के समान, केवल अपने 'स्थानी' की याद दिलाने वाले हैं। अतः उनका अपना कोई अर्थं ही नहीं है। जब उनका अपना कोई अर्थ ही नहीं है, वे केवल 'लकार' के अर्थ को ही वे प्रस्तुत करते हैं, तो एक ही 'लकार' 'शतृ'-प्रत्ययान्त शब्द में 'कारक' को कहे तथा 'तिप्' आदि विभक्त्यन्त प्रयोगों में केवल 'कृति' का बोध कराये इस रूप में यह एक ही शब्द की द्वयर्थकता कैसे सम्भव है ? क्योंकि एक ही शब्द की अनेकार्थकता को अनुचित माना गाया है-“अन्यायश्चानेकार्थत्वम् । [नैयायिकों के अनुसार 'लकार' का अर्थ 'कृति' मानने से उत्पन्न दोषों के निराकरण का एक और उपाय तथा उसका खण्डन]
ननु 'लः कर्मणि" (पा० ३.४.६६) इति सूत्रे ‘कर्तृ'
'कर्म'पदे भावप्रधाने' । तथा च' कर्तृत्वं कृतिः, कर्मत्वं १. ह.-कर्तृकर्मपदं भावप्रधानम् । २. ह. तथा बंमि० में 'च' अनुपलब्ध ।
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