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धात्वर्थ-निर्णय
१६७ फलं, तयोः शक्तौ सूत्रस्व रसः । कर्मप्रत्ययान्ते 'पच्यते प्रोदनो देवदत्तेन' इत्यादौ 'देवदत्त-निष्ठ-कृति-जन्यव्यापार-जन्य-विक्लित्तिमान् प्रोदनः' इति बोधः । "कर्तरि कृत्" (पा० ३.४.६७) इति सूत्रे तु 'कर्तरि' इति पदस्य धर्मिप्रधानत्वात् कृत्याश्रये शत्रादीनां शक्तिरिति चेत् ? न । “कर्तरि कृत्” इति सूत्रे यत् 'कर्तृ'-ग्रहणं तस्यैव "ल: कर्मणि०" इति सूत्रे चकारानुकृष्टत्वेन भावप्रधानत्वे सूत्रस्वरसाभावात् । शत्रादीनां 'स्थान्यर्थाभिधानसमर्थस्यैव प्रादेशत्वम्" इति न्यायेन स्थान्यर्थेन निराकाङ्क्षत्वात् "याकांक्षितविधानं ज्यायः" इति न्यायात् "कर्तरि कृत्" इत्यनेन शक्तिग्रहाभावात् । अन्यथा 'देवदत्तेन शय्यमाने
पास्यमाने च यज्ञदत्तो गतः' इत्यादौ भावे शानजनापत्तेः । "लः कर्मणि." इस सूत्र (के अर्थ) में (विद्यमान) 'कर्ता' तथा 'कर्म' शब्द भाव-प्रधान हैं और इस तरह भावप्रधान होने के कारण 'कर्ता' अर्थात् कर्तृत्व का अभिप्राय 'कृति' (यत्न) तथा 'कर्म' अर्थात् कर्मत्व (का अभिप्राय) 'फल' है। (अतः) उन दोनों ('कृति' तथा 'फल') को (क्रमशः कर्तृवाच्य तथा कर्मवाच्य में लकार का) वाच्यार्थ बताने में सूत्र की सङ्गति है। कर्मवाच्य में 'पच्यते ओदनो देवदत्तेन (देवदत्त के द्वारा चावल पकाया जाता है) इत्यादि (प्रयोगों) में 'देवदत्त' में होने वाले 'यत्न' से उत्पन्न व्यापार से उत्पन्न होने वाली विक्लित्ति का प्राश्रय प्रोदन" यह बोध होता है । परन्तु "कर्तरि कृत्" इस सूत्र में 'कर्तरि' इस पद के धर्मिप्रधान ('कर्तृता'-रूप धर्म से युक्त धर्मी, अर्थात् 'कर्ता', का प्रधान रूप से वाचक) होने के कारण कृति के आश्रय ('कारक') में 'शत' आदि प्रत्ययों की वाचकता-शक्ति माननी चाहिये--यदि यह कहा जाय तो वह उचित नहीं है क्योंकि "कर्तरि कृत्" इस सूत्र में जो 'कर्तृ' पद का प्रयोग किया गया है उसी ('कर्तृ' पद) के "ल: कर्मणि." इस सूत्र में 'च' के द्वारा अनुकृष्ट होने (खींचे जाने) के कारण (“लः कर्मणि." सूत्र में) उसे भावप्रधान मानने में सूत्र की स्वाभाविकता समाप्त हो जाती है। 'स्थानी' के अर्थ को कह सकने में समर्थ ही 'आदेश' होता है" इस न्याय के अनुसार स्थानी' ('लकार') के अर्थ ('कृति') के द्वारा (अर्थवान् हो जाने से) आकांक्षारहित हो जाने के कारण, "साकांक्ष (अर्थ) का विधान करना ही श्रेष्ठ है" इस न्याय से, १. यह अन्तिम वाक्य ह० तथा वंमि० में अनुपलब्ध है।
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