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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धात्वर्थ-निर्णय १६५ केवल 'कति' अर्थ) इष्टापत्ति है क्योंकि (ऐसा मानने से) "नामार्थयोः अभेदान्वयो व्युत्पन्नः' (दो प्रातिपदिकार्थों में परस्पर अभेदान्वय ही निश्चित है) इस न्याय का उल्लङ्घन होता है । ___ "फलमुखगौरवं न दोषाय" (किसी प्रमुख प्रयोजन की दृष्टि से गौरव को स्वीकार करना दोष नहीं है) इस न्याय के अनुसार 'शतृ' आदि (प्रत्ययों) की 'कर्ता' में तथा 'तिप्' आदि की 'कृति' में 'शक्ति' (वाचकता) मानी जाय तो (वह भी) उचित नहीं क्योंकि "लाघव के कारण 'स्थानी' ('लकार' आदि) ही वाचक है, 'आदेशों' के बहुत होने के कारण उन्हें वाचक मानने में गौरव है" यह तो तुम्हारा (नैयायिक का ही) मत है। और इस प्रकार 'तिप्' आदि तथा 'शतृ' आदि (सभी अपने) 'स्थानी' ('लकार' के) स्मारक (मात्र) होने के कारण लिपि के समान हैं, (वस्तुतः) बोधक तो 'लकार' ही है । और वह 'लकार', शतृ' आदि (प्रत्यय) हैं अन्त में जिस शब्द के उसमें, 'कर्ता' का वाचक बन कर, 'तिब्' आदि जिनके अन्त में हैं उन (क्रिया पदों) में, ('कर्ता' का बोध न करा कर) 'कति' का बोध कैसे करायेगा? क्योंकि "अन्यायश्चानेकार्थत्वम्" (एक ही शब्द के अनेक अर्थ होना अनुचित है) यह न्याय है। पुरुष-व्यवस्थानापत्तेः- 'लकारों' का अर्थ केवल 'कृति' मानने में पहला दोष यह है कि 'युष्मद्' तथा 'अस्मद्' सर्वनामों के साथ 'लकार' का सामानाधिकरणय न बनने से पुरुष-विषयक व्यवस्था नहीं बन सकेगी। अभिप्राय यह है कि पाणिनि ने, "युष्मद्य पपदे समानाधिकरणे स्थानिन्यपि मध्यमः' (पा० १.४.१०५) तथा "अस्मद्य त्तमः" (पा० १.४.१०७) इन दो सूत्रों से, यह व्यवस्था बनायी कि समान-अधिकरण, अर्थात् अभिन्न वाच्यार्थ, के होने पर 'युष्मद' तथा 'अस्मद्' की विद्यमानता में क्रमशः मध्यम तथा उत्तम पुरुष प्रयुक्त होंगे । यहां 'युष्मद्' तथा 'अस्मद्' की समानाधिकरणता 'लकार' के स्थान पर आये 'तिङ्' के साथ ही देखी जा सकती है, अर्थात् यदि 'युस्मद्' या अस्मद्' तथा 'तिङ्' का वाच्यार्थ एक ही द्रव्य को अपना अधिकरण (विषय) बनाता है 'तभी मध्यम तथा उत्तम पुरुष का प्रयोग होगा। स्पष्ट शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जिस 'कारक' को 'युष्मद्' तथा 'अस्मद' सर्वनाम कह रहे हों उसी को यदि 'तिङ्' विभक्ति भी कहती हो तभी क्रमशः मध्यम तथा उत्तम पुरुषों का प्रयोग हो सकता है। अब यदि नैयायिकों के मत के अनुसार 'लकार' या उसके 'आदेश' 'तिङ्' का अर्थ केवल 'कृति' माना जाता है ('कर्ता' आदि नहीं:) तो 'युष्मद्' तथा 'अस्मद्' की उसके साथ समानाधिकरणता (वाच्यार्थ की एकता) ही नहीं बन पाती क्योंकि इन दोनों सर्वनामों का वाच्य अर्थ है क्रमशः मध्यम तथा उत्तम पुरुष और दूसरी ओर 'तिङ' का वाच्यार्थ है 'कृति' । इस प्रकार भिन्न-भिन्न अर्थ के होने के कारण समानाधिकरणता कहां रही ? शत-शानजादीनामपि ....कृतिमात्र-बोधापत्तेश्च- इसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह है कि 'पचन्तं चैत्रं पश्य' तथा 'पचते चैत्राय देहि' जैसे प्रयोगों में 'शत' और 'शानच्' प्रत्यय भी केवल 'कृति' का ही बोध करा सकेंगे, 'कर्म', 'सम्प्रदान' आदि 'कारकों' का नहीं क्योंकि ये प्रत्यय भी “लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे" For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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