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वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
एवं च सङ्ख्यायाः स्ववाचकाख्यातार्थव्यापारे श्रन्वयिन्येव अन्वयात् 'शिष्याभ्याम्' इति द्विवचनानापत्तिः । 'पाचयति' इत्येकवचनानापत्तिश्च । गुरोनभिधानेन तत्र प्रथमाया अनापत्तश्च । 'शिष्य' - शब्दात् तदापत्तेश्च इत्यन्यत्र विस्तरः ।
'कर्म' और 'कर्ता' में विहित 'कृत्' प्रत्ययों को कारक ( 'कर्म' या 'कर्ता' ) तथा 'व्यापार' (इस रूप में) दो अर्थों का वाचक मानने में गौरव होगा । और ( यदि इन 'कृत्' प्रत्ययों का 'व्यापार' अर्थ नहीं माना जाता तो ) 'भाव' में विहित 'घञ्' आदि प्रत्ययों के द्वारा 'व्यापार' का कथन न होने पर ( ' ग्राम: संयोगवान्' प्रयोग के समान) 'ग्रामो गमनवान्' इस प्रयोग को भी साधु मानना पड़ेगा। और यदि उसे ( घञ्' आदि को ) 'व्यापार' का वाचक माना जाता है तो उस ('व्यापार') के द्वारा ही अपने प्राश्रय ('कर्ता' ) के आक्षेप हो जाने पर 'कर्ता' के कथित होने की प्रपत्ति उपस्थित होती है ।
इसके अतिरिक्त 'गुरुः शिष्याभ्यां पाचयति' (गुरु दो शिष्यों से पकवाता है ) इत्यादि ( प्रयोगों) में, " हेतुमति च" इस सूत्र के बल से प्रयोजक (प्रेरक) के 'व्यापार' को 'णिच्' (प्रत्यय) का अर्थ मान लेने पर, प्रयोज्य के 'व्यापार' को 'तिङ' का अर्थ मानना पड़ेगा । और इस रूप में संख्यावाचक 'आख्यात' के अर्थ - ( प्रयोज्य) 'व्यापार' - से अन्वित होने वाले (प्रयोज्य) में सङख्या का अन्वय होने से 'शिष्याभ्याम् ' इस (प्रयोग) में द्विवचन तथा 'पाचयति' इस (प्रयोग) में एकवचन नहीं हो सकेगा तथा 'गुरु' के अकथित रहने से वहां 'प्रथमा विभक्ति की प्राप्ति नहीं होगी और 'शिष्य' शब्द से उस (प्रथमा ' विभक्ति) की प्राप्ति होगी । यह बातें अन्यत्र (लघुमंजूषा आदि में) विस्तार से कही गयी हैं ।
मीमांसकों की उपर्युक्त मान्यता में पांचवां दोष यह है कि 'व्यापार' को धातु का अर्थं न मानने पर उन 'ण्वुल्' आदि 'कृत्' प्रत्ययों के दो दो अर्थ ('व्यापार' तथा 'कारक') मानने होंगे जिनका बिधान 'कर्ता' या 'कर्म' को कहने के लिये किया गया है । इस प्रकार 'ण्वुल्' प्रत्यय को 'कर्ता' तथा 'व्यापार' दोनों का वाचक मानना होगा जिसमें विशेष गौरव है । वैयाकरण इन 'कृत्' प्रत्ययों को केवल आश्रय का वाचक मानते हैं, इसलिये उनके सिद्धान्त में लाघव है ।
और यदि गौरव के भय से 'कृत्' प्रत्ययों को इन उभय अर्थों का वाचक न माना गया केवल 'कर्ता' 'कर्म' आदि को ही उनका वाच्यार्थ माना गया, 'व्यापार' को नहीं, तो एक दूसरा दोष उपस्थित होगा । मीमांसक 'व्यापार' को तो धातु का अर्थ मानते ही नहीं साथ ही यदि वे 'भाव' में विहित 'घन्' आदि 'कृत' प्रत्ययों को भी 'व्यापार' का
१.
६० में 'तत्र' अनुपलब्ध |
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