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धात्वर्थ-नियर्ण
१३७
इस कठिनाई के समाधान के रूप में यह कहा जा सकता है कि अभिधान तथा अनभिधान की व्यवस्था भी यों बन जायगी कि कर्तृवाच्य में प्रधान जो 'व्यापार' वह अपने आश्रय का आक्षेप (असाक्षात् कथन) ठीक उसी प्रकार करेगा जिस प्रकार, 'जाति' में शक्ति मानने वाले विद्वानों की दृष्टि में, 'जाति' अपने प्राश्रय 'व्यक्ति' का आक्षेप कर लेती हैं। इस प्रकार 'व्यापार' के द्वारा 'कर्ता' का आक्षेप होने से कर्तवाच्य में 'कर्ता' कथित हो जाया करेगा। इसी रूप में कर्मवाच्य में प्रधानभूत 'फल' अपने आश्रय 'कर्म' का आक्षेप करेगा जिससे कर्मवाच्य के प्रयोगों में भी 'कर्म' कथित हो जायगा । इस प्रकार पाणिनि की 'अनभिहित' तथा 'अभिहित' की व्यवस्था में कोई दोष नहीं प्राता।
परन्तु 'अनभिहिते' की यह व्यवस्था भी इसलिये मान्य नहीं है कि प्राश्रय के आक्षेप द्वारा 'कर्ता' तथा 'कर्म' विषयक अभिधान, अनभिधान की व्यवस्था के बन जाने पर भी एक महान् दोष उपस्थित होता है। 'जाति' में शब्द की शक्ति मानने के सिद्धान्त में 'जाति' के द्वारा उसके आश्रय 'व्यक्ति' का आक्षेप तो किया जाता है । परन्तु जिस प्रकार 'जाति' से आक्षिप्त 'व्यक्ति' के अर्थ की वहां प्रधानता होती है -... 'व्यक्ति' में ही कार्य किये जाते हैं 'जाति' में नहीं-उसी प्रकार यहां भी 'व्यापार' के द्वारा आक्षिप्त 'कर्ता' तथा 'कर्म की ही प्रधानता माननी होगी 'व्यापार' की नहीं, अर्थात् 'व्यापार' को अप्रधान या गौरण मानना होगा । और इस रूप में यदि 'व्यापार' को गौण मान लिया गया तो “आख्यात' क्रिया-प्रधान होता है" यास्क के इस कथन से महान् विरोध उपस्थित होगा । इसलिये, महर्षि यास्क के कथन के विरुद्ध होने के कारण, मीमांसकों का उपर्युक्त मत मान्य नहीं है। इस कारण पूर्वोक्त 'सकर्मक' तथा 'अकर्मक' की अव्यवस्था वाला दोष बना ही हुआ है।
किंच. "लःकर्मणि." इत्यस्य वयापत्तेः-यास्क के वचन से विपरीत होने के अतिरिक्त एक और आपत्ति यह है कि, 'व्यापार' के आक्षेप के द्वारा 'कर्ता' तथा 'कर्म' के कथन की बात मान लेने पर, पाणिनि का "लः कर्मणि." इस सूत्रांश के द्वारा 'कर्ता' तथा 'कर्म' में लकारों का विधान करना व्यर्थ हो जाता है क्योंकि उनका कथन तो क्रमशः 'व्यापार' तथा 'फल' के द्वारा ही हो जाया करेगा।
[मीमांसकों के मत में अन्य दोषों का प्रदर्शन]
कर्मकर्तृकृतां कारकभावनोभयवाचकत्वे गौरवाच्च । किञ्च भावविहितघनादीनां व्यापारावाचकत्वे 'ग्रामो गमनवान्' इत्याद्यापत्तिः । तद्वाचकत्वे तेनापि स्वाश्रयाक्षेपे कर्तुरभिधानापत्तिः । किञ्च 'गुरुः शिष्याभ्यां पाचयति' इत्यादौ "हेतुमति च" (पा० ३.१.२६.) इति सूत्रबलात् प्रयोजक-व्यापारस्य गिजर्थत्वे स्थिते प्रयोज्यव्यापार आख्यातार्थो वाच्यः ।
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