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वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
( जल से सींचता है) यह योग्य (वाक्य) है । सेक ( सींचना रूप क्रिया) में अन्वय का जनक (धर्म) – वस्तु का द्रव ( प्रवाहात्मक) होना रूप योग्यता - -जल में है तथा 'करण' रूप से जल में अन्वय ( सम्बन्ध ) का उत्पादक धर्म - ( शुष्क को गीला कर देना) - रूप योग्यता - सेक ( सिंचन क्रिया) में है । इसीलिए (योग्यता के इस स्वरूप को मानने के कारण ही ) 'वह्निना सिचति' (आग से सींचता है) यह (वाक्य) अयोग्य है, क्योंकि सिचन में अन्वय का उत्पादक धर्म ( वस्तु का प्रवाह रूप वाला होना) अग्नि में नहीं है ।
यहाँ वैयाकरणों की दृष्टि से 'योग्यता' की परिभाषा प्रस्तुत की गयी है " परस्परान्वय-प्रयोजक-धर्मवत्त्वं योग्यता" । इसका अभिप्राय यह है कि पदों के अर्थों का पारस्परिक अन्वय उसका हेतुभूत जो धर्म उस धर्म से युक्त होना 'योग्यता' है। जैसे- 'पयसा सिंचति' इस वाक्य में 'योग्यता' है, क्योंकि 'सिंचन' रूप क्रिया में 'पयसा ' शब्द के अर्थ (जल) के अन्वय का हेतुभूत धर्म, अर्थात् गीलापन अथवा प्रवाहात्मक होना रूप योग्यता, जल में है। तथा इसी प्रकार 'करण' भूत जल में 'सिंचन' के अन्वय का हेतुभूत धर्म, अर्थात् सूखे को गीला कर देना रूप योग्यता, 'सिंचन' क्रिया में है । इसलिये 'पयसा सिंचति' यह वाक्य 'योग्यता' से युक्त है । इस 'परस्परान्वय प्रयोजक-धर्मवत्ता' के न होने के कारण 'वह्निना सिंचति' इस वाक्य में 'योग्यता' नहीं मानी जाती । क्योंकि 'आग' में गीलापन अथवा प्रवाहात्मकता रूप धर्म नहीं है जिससे 'वहिन' का सिंचन में अन्वय हो सके । तथा इसी प्रकार 'सिंचन' में जलाना या सुखाना रूप धर्म नहीं है जिस से उसका 'वह्नि' के साथ अन्वय हो सके । द्र० - "कार्यविशेषजनने सामर्थ्यम् (योग्यता ) । तच्च एक पदार्थे अपर-पदार्थ-प्रकृत-संसर्गवत्त्वम्" ( न्यायमंजरी ४ से न्यायकोश में उद्धत ) तथा "इयं योग्यता च ज्ञाता सती शाब्द- बोधप्रयोजिका शब्दयोग्यता इति व्यवहिते । इयं योग्यताऽयोग्य वाक्य निरसिका च भवति । अत एव 'वह्निना सिंचति' इत्यादि-वाक्यान् नान्वयबोधः प्रमात्मको भवति । योग्यताविरहात् " ( तर्ककौमुदी से न्यायकोश में उद्धृत) ।
[ 'योग्यता' के विषय में नैयायिकों का वक्तव्य तथा उसका खण्डन ]
१.
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एतादृशस्थलेषु नान्वयबोधः किन्तु प्रत्येकं पदार्थबोध - मात्रम् इति 'नैयायिकाः । तन्न | बौद्धार्थस्यैव सर्वत्र बोधविषयत्वेन बाधस्याभावात् । हरिः ग्रप्याह -
अत्यन्त सत्यपि ह्यर्थे ज्ञानं शब्दः करोति च' इति ।
खण्डनखण्डखाद्य (चौखम्बा संस्करण १९१४, पृ० १६८) में मीमांसाश्लोकवार्तिक ( चोदनासूत्र ६ ) के नाम से निम्न कारिका उद्धत है :
अत्यन्तासत्यपि ह्यर्थे ज्ञानं शब्दः करोति हि ।
अबाधात् तु प्रमाम् अत्र स्वतः प्रामाण्य निश्चलाम् ॥
परन्तु मीमांसाश्लोक वार्तिक ( शेषकृष्ण रामनाथ शास्त्री सम्पादिन, मद्रास विश्वविद्यालय, १९४०, पृ० ३३) में निम्न कारिका मिलती है :
त्यासत्यपि ह्यर्थे ज्ञानं शब्दः करोति हि ।
तेनोत्सर्गे स्थिते तस्य दोषाभावात् प्रमाणता ॥
भी हो यह कारिका, जिसे नागेश ने यहां उद्धृत किया है, भतृहरि की नहीं है । सम्भवतः भ्रमवश ही भर्तृहरि के नाम से इसे उद्धृत किया गया है।
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