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याकांक्षादि-विचार
११६ अतो वन्ध्यासुतादिशब्दानां प्रातिपदिकत्वम् । 'वह्निना सिञ्चति' इत्यतो बोधाभावे तद्वाक्यप्रयोक्तारं प्रति 'पद्रवेण वह्निना कथं सेकं ब्रवीषि' इत्युपहासानापत्तश्च । वाक्यार्थबोधे जाते बुद्धार्थविषये प्रवृत्तिस्तु न भवति बुद्धार्थेऽप्रामाण्यग्रहाद् इत्यन्यत्र विस्तरः ।
ऐसे (अयोग्यता) के स्थलों में (शब्दों के पारस्परिक) सम्बन्ध का बोध नहीं होता किन्तु केवल प्रत्येक पदों का अर्थज्ञान ही होता है-ऐसा नैयायिक मानते हैं। यह (नैयायिकों का विचार) उचित नहीं है। क्योंकि बौद्धिक अर्थ ही सर्वत्र (शब्द द्वारा) बोध का विषय बनता है। इस कारण (उस बुद्धिगत अर्थ की) बाधा नहीं होती। भर्तृहरि भी कहते हैं - "वस्तु के सर्वथा न होने पर भी शब्द (उस वस्तु को बौद्धिक) ज्ञान कराता ही है।" इसलिये (अर्थ को बुद्धिगत मानने से) 'वन्ध्यासुत' आदि शब्दों की भी (इनकी बौद्धिक अर्थवत्ता के कारण) 'प्रातिपदिक' संज्ञा है। 'वह्निना सिञ्चति' इस वाक्य से ज्ञान न होने पर, इस वाक्य के बोलने वाले के प्रति, 'द्रव रहित आग से तुम सींचने की बात कैसे कहते हो ?' इस प्रकार का उपहास नहीं किया जा सकता। (इसलिये 'योग्यता' के न होने पर भी) वाक्य के अर्थ का ज्ञान हो जाने से (उस) ज्ञात अर्थ में प्रवृत्ति तो इसलिये नहीं होती कि श्रोता को (उस ज्ञान की) अयथार्थता का निश्चय हो जाता है। यह विषय अन्यत्र । (लघुमंजूषा) में विस्तार से वरिणत
नैयायिक विद्वान् 'योग्यता' से रहित, 'वह्निना सिंचति' इत्यादि, वाक्यों के द्वारा सम्बद्ध अर्थ का ज्ञान होता है-ऐसा नहीं मानते । उनका कहना है कि इन वाक्यों में अलग अलग पदों के अर्थ का ही ज्ञान होता है-सम्बद्ध वाक्यार्थ का नहीं । ये विद्वान् "पदों के अर्थों के अन्वय में बाधा का न होना" 'योग्यता' की परिभाषा मानते हैं । इस प्रसंग में नैयायिक विद्वानों द्वारा निर्धारित, 'योग्यता' की, निम्न परिभाषायें द्रष्टव्य हैं:-- "बाधक-प्रमा-विरहः” (तत्त्वचिन्तामणि ---४), "अर्थाबाधः” (तर्कसंग्रह-४) तथा "बाध-निश्चयाभावो योग्यता इति नव्या पाहुः" (नीलकण्ठी-४)
वैयाकरण विद्वान् नैयायिकों के इस मत से सहमत नहीं हैं। उनका विचार है कि वाक्य से जिस अर्थ की प्रतीति होती है वह सर्वत्र पहले बौद्धिक ही होती है। बाद में बौद्धिक अर्थ तथा बाह्य अर्थ को अभिन्न मान लेने के कारण बुद्धिगत अर्थ से बाह्यार्थ की प्रतीति होती है। इसलिये 'वह्निना सिंचति' इत्यादि वाक्यों में भी बौद्धिक वाक्यार्थ की प्रतीति में कोई बाधा नहीं है। इस कारण 'योग्यता' को वैयाकरण 'शाब्दबोध' में अनिवार्य कारण नहीं मानते।
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