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आकाक्षांदि-विचार
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अथवा 'याकांक्षा' के उत्थापक भी हैं तथा विषय भी हैं। क्योंकि यदि 'पचति' नहीं कहा गया तो 'तण्डुलं देवदत्तः' अंश साकांक्ष रहेगा तथा यदि 'तण्डुलं देवदत्तः' नहीं कहा गया तो 'पचति' पद साकांक्ष रहेगा। इसी प्रकार 'पचति' के विषय हैं 'तण्डुल' तथा 'देवदत्त' और 'तण्डुल' तथा 'देवदत्त' का विषय है 'पचति' क्योंकि क्रिया बिना 'कारक' के तथा 'कारक' बिना क्रिया के नहीं रह सकता।
__प्रत एव साकांक्षत्वाच्च-यहां 'आकांक्षा' की दूसरी परिभाषा क्यों प्रस्तुत की गयी इस प्रश्न का उत्तर इन पंक्तियों में दिया गया है । इस दूसरी परिभाषा के अनुसार 'उत्थापकता' अथवा 'विषयता' इनमें से किसी एक सम्बन्ध से अथवा दोनों सम्बन्धों से पदार्थ में रहने वाली, अन्य पदार्थ-विषयक, जिज्ञासा को ही 'आकांक्षा' माना गया तथा इस प्रकार की 'आकांक्षा' को ही 'शाब्दबोध' में कारण माना गया है। इसलिये इस परिभाषा के कारण ही 'घट:कर्मत्वम् आनयनं कृतिः' इस वाक्य से, 'घटम् आनय' इस वाक्य के समान, 'अन्वयबोध' अथवा अर्थज्ञान नहीं होता। क्योंकि 'घटः कर्मत्वम् प्रानयनं कृतिः' इस प्रयोग में इस प्रकार की 'आकांक्षा' नहीं है जिसका स्वरूपनिर्देश दूसरी परिभाषा में किया गया। अभिप्राय यह है कि 'कर्मत्वम्' पद से उपस्थापित अर्थ ('कर्मत्व') के ज्ञान में, 'कर्मत्व' रूप अर्थ में अन्वित होने के योग्य जो 'पानयन' रूप अर्थ का ज्ञान उस ज्ञान-विषयक इच्छा रूप, 'आकांक्षा' तो है, परन्तु, 'उत्थापकता' या 'विषयता' के सम्बन्ध से अथवा दोनों सम्बन्धों से, एक शब्दार्थ में विद्यमान दूसरे शब्दार्थ से सम्बद्ध जिज्ञासा रूप 'याकांक्षा' यहाँ 'कर्मत्व' रूप शब्दार्थ में नहीं है। क्योंकि 'कर्मत्व' न तो 'पानयन' --ज्ञान का उत्थापक ही है और न उसका विषय ही है। इस प्रकार की 'आकांक्षा' सुबन्त' तथा 'तिङन्त' पदों में ही रहा करती है। इसलिये 'घटम् प्रानय' इस प्रयोग से, इसमें 'याकांक्षा' की विद्यमानता के कारण, 'शाब्दबोध' होता है। परन्तु 'धट: कर्मत्वम् प्रानयनं कृतिः' इस प्रयोग से, इसमें दूसरे प्रकार की 'आकांक्षा' के न होने के कारण, 'शाब्दबोध' नहीं होता । इसलिये 'याकांक्षा' की यह दूसरी परिभाषा अधिक परिष्कृत एवं आवश्यक है।
['योग्यता' का स्वरूप]
'योग्यता' च परस्परान्वयप्रयोजकधर्मवत्वम् । तेन 'पयसा सिञ्चति' इति वाक्यम्' योग्यम् । अस्ति च सेकान्वयप्रयोजकद्रवद्रव्यत्वं योग्यता जले। करणत्वेन जलान्वयप्रयोजकार्दीकरणत्वं योग्यता सेकक्रियायाम् । अतएव 'वह्निना सिञ्चति' इति वाक्यम् अयोग्यम् ।
वह्न: सेकान्वयप्रयोजकद्रवद्रव्यत्वाभावात् । (वाक्य के शब्दों में अर्थ की दृष्टि से) पारस्परिक अन्वय (सन्बन्ध) के प्रयोजक (जनक) धर्म से युक्त होना 'योग्यता' है। इसलिये 'पयसा सिञ्चति' १. काप्रशु० में 'वाक्यम्' पद नहीं है ।
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