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स्फोट-निरूपण
१०६
उच्चारयितुस्तु युगपदेव 'मध्यमावैखरीभ्यां' नाद उत्पद्यते । तत्र 'वैखरी'-नादो वह ने: फूत्कारादिवन् 'मध्यमा'-नादोत्साहकः । 'मध्यमा'-नादः स्फोटं व्यञ्जयति इति शीघ्रमेव ततोऽर्थबोधः । परस्य विलम्बेन अनुभव-सिद्धत्वात् । अत एव "श्रोत्रोपलब्धिर्बुद्धिनिर्ग्राह्यः प्रयोगेणाभिज्वलित
आकाशदेशः शब्दः” (महा०, भा० १, पृ० ६५) इत्याकरग्रन्थः सङ गच्छते। कत्वादिना श्रोत्रोपलब्धित्वं स्फोटात्मक-पदादि-रूपेण तु बुद्धि-निर्ग्राह्यत्वम् । स च प्रयोगेण 'वैखरी' रूपेण अभिज्वलितः स्वरूपरूषितः कृत
इति तदर्थः । यहां यह जानना चाहिये-किसी के द्वारा 'घटम् पानय' इस 'वैखरी' नाद (ध्वनि) का उच्चारण किया गया । उस (ध्वनि) को किसी ने श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया। वह ध्वनि श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा बुद्धि तथा हृदय में जाकर अर्थबोधक शब्द को, अपने 'कत्व' आदि के द्वारा, व्यक्त करता है । उस (अभिव्यक्त 'स्फोट') से अर्थ का ज्ञान होता है । ‘स्फुटत्यर्थोऽस्मात्' (इससे अर्थ का प्रकाशन होता है) इस व्युत्पत्ति से (अर्थ-वाचक शब्द को) 'स्फोट' कहा जाता है।
उच्चारण करने वाले (व्यक्ति) से 'मध्यमा' तथा 'वैखरी' (वाणी की इन अवस्थाओं) द्वारा एक साथ ही ध्वनि उत्पन्न होती है। उनमें 'वैखरी' नाद, फंकने से जिस प्रकार आग बढ़ती है उसी प्रकार, 'मध्यमा' नाद को बढ़ाने वाला है । 'मध्यमा' नाद 'स्फोट' को अभिव्यक्त करता है। इस तरह (उच्चारयिता को) उस (व्यक्त 'स्फोट') से शीघ्र ही अर्थ का ज्ञान हो जाता है। (परन्त) दूसरे (श्रोता) को देर से (अर्थ का ज्ञान होता है यह) अनुभवसिद्ध है।
इसीलिए ('स्फोट' को स्वीकार करने के कारण ही) “कानों से जिसका श्रवण होता है, बुद्धि से जिसका अर्थ ज्ञात होता है, उच्चारण से जिसकी अभिव्यक्ति होती है तथा जो आकाश में रहता है वह शब्द है" यह भाष्य (-वचन) सुसङ्गत होता है । “कत्व" आदि ध्वनि रूप से श्रोत्र द्वारा उस 'स्फोट' का ग्रहण होता है । 'पद-स्फोट' आदि (तथा 'वाक्य-स्फोट') रूप से उस 'स्फोट' का बुद्धि के द्वारा ज्ञान होता है और वह (स्फोट) 'वैखरी' ध्वनिरूप प्रयोग से अभिव्यक्त होता है-अपने रूप ('कत्व' आदि) से युक्त किया जाता है" यह उस (भाष्य-पंक्ति) का अर्थ है । १. ह. में नहीं है।
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