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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
ध्वनि के ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत आदि धर्मों का, 'लक्षणा' वृत्ति द्वारा, आरोप कर लिया गया । द्र०--
स्वभावभेदान् नित्यत्वे ह्रस्वदीर्घप्लुतादिषु ।
प्राकृतस्य ध्वनेः काल: शब्दस्येत्युपचर्यते ॥ (वाप०, १.७६) स्वरूप की दृष्टि से नित्य होने पर भी ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत आदि स्थितियों में 'प्राकृत' ध्वनि का जो काल है उसे शब्द का मान लिया जाता है।
शब्दस्योर्ध्वम् अभिव्यक्तेः- केवल 'प्राकृत' ध्वनि के धर्मों को ही 'स्फोट' या 'शब्द' का धर्म क्यों माना जाता है, "वैकृत" ध्वनि के 'द्र त' आदि वृत्तियों को 'स्फोट' का धर्म क्यों नहीं माना जाता है ? इस प्रश्न का उत्तर यहाँ उद्ध त भर्तृहरि की कारिका में मिल जाता है और वह यह कि 'स्फोट' के अभिव्यक्त हो जाने के पश्चात् 'वैकृत' ध्वनि अपने विकारों के साथ उपस्थित होती है। इस प्रकार 'स्फोट' तथा 'वकृत' ध्वनि में स्पष्टतः भेद के प्रगट हो जाने के कारण 'वैकृत' ध्वनि के धर्मों को 'स्फोट' में अध्यारोपित नहीं किया जाता। द्र०-"तस्माद् उपलक्षित-व्यतिरेकेण वैकृतेन ध्वनिना सम्प्रयुज्यमानोऽपि स्फोटात्मा ताद्रूप्यस्य अनध्यारोपात् शास्त्रे ह्रस्वादिवत् कालभेदव्यवहारं नावतरति'' (स्वोपज्ञ टीका, पृ० ८०) ।
'जायन्ते' इति शेष:-"शब्दस्योर्ध्वम् अभिव्यक्तः०" इस कारिका के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए नागेश ने 'जायन्ते' इस क्रियापद का अध्याहर किया है। इनके अनुसार इस कारिका का अन्वय होगा-"शब्दस्य अभिव्यक्तेः ऊर्ध्वं वैकृता ध्वनयः जायन्ते । ते च जाताः (द्रु तादि-) वृत्तिभेदे 'समुपोहन्ते' (कारणानि भवन्ति)।" अर्थात् शब्द की अभिव्यक्ति के उपरान्त 'वैकृत' ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं। उत्पन्न दुई वे 'वैकृत' ध्वनियां 'दूत' आदि वृत्तियों की भिन्नता में कारण बनती हैं। वस्तुतः इस 'जायन्ते' क्रिया के अध्याहार की कोई आवश्यकता यहां नहीं है, क्योंकि 'वैकृताः' पद 'ध्वनयः' का विशेषण है तथा 'ध्वनय:' 'समुपोहन्ते' इस क्रिया का कर्ता है। अतः उस क्रिया से यहां अर्थ स्पष्ट हो जाता है।
[ बखरी' नाद तथा 'मध्यमा' नाद का, उदाहरण द्वारा, स्पष्टीकरण]
अत्रेदं बोध्यम्केनचिद् ‘घटम् प्रानय' इति 'वैखरी' नादः प्रयुक्तः । स केनचित् श्रोत्रेन्द्रियेण गृहीतः । स नाद इन्द्रियद्वारा बुद्धिहृद्गतः सन् अर्थबोधकं शब्दं स्व-निष्ठ-कत्वादिना व्यञ्जयति । तस्माद् अर्थबोधः । 'स्फुटत्यर्थोऽस्माद्' इति
व्युत्पत्त्या' 'स्फोटः'। १. ह० में अनुपलब्ध । २. ह.-कर्णे-। ३. ह. में इसके बाद 'अत एव' पाठ अधिक है।
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