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वयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-नंजूशा __यहाँ श्रोता तथा वक्ता दोनों की दृष्टि से 'स्फोट' के द्वारा अर्थाभिव्यक्ति का क्रम बताया गया । 'वैखरी' नाद के द्वारा 'शब्द' श्रोता के कानों तक पहुँचता है और फिर कानों से बुद्धि तथा हृदय में पहुँचकर वह श्रोता को अर्थ का बोध कराता है। परन्तु वक्ता की दृष्टि से तो एक साथ ही 'मध्यमा' तथा 'वैखरी' वाणियों द्वारा नाद या ध्वनि की उत्पत्ति होती है।
नागेश ने ऊपर परा, पश्यन्ती मध्यमा, वैखरी वारिणयों की चर्चा करते समय भी इस बात का उल्लेख किया है- "युगपदेव मध्यमा-वैखरीभ्यां नाद उत्पद्यते । तत्र मध्यमा नादोऽर्थवाचक-स्फोटात्मक-शब्द-
व्यञ्जकः ।" वहां भी वक्ता की दृष्टि से ही 'मध्यमा' तथा 'वैखरी' द्वारा एक साथ नादोत्पत्ति की बात कही गयी है।
प्रयोगेणाभिज्वलितः-यहां विद्यमान 'प्रयोग' शब्द का अभिप्राय नागेश ने 'वैखरी' ध्वनि किया है। सामान्यतया 'प्राकृत' ध्वनि से ही स्फोट की अभिव्यक्ति भर्तृहरि आदि वैयाकरणों ने मानी है जिसका निदर्शन ऊपर हो चुका है। परन्तु यहां 'स्फोट' की परश्रवणगोचरता (दूसरे के द्वारा सुनाई देने की योग्यता) का प्रसंग होने के कारण 'वैखरी' ध्वनि ही 'प्रयोग' का पद अभिप्राय होना चाहिये। क्योंकि 'वैखरी' रूप से ही 'स्फोट' दूसरों के लिए श्रव्य या अभिव्यक्त होता है। "स्फोट:' शब्दो ध्वनिः शब्द-गुणः” (महा० १.१.६६) इस कथन में भी पतंजलि के 'ध्वनि' का अभिप्राय 'वैखरी' ध्वनि ही मानना चाहिये । अन्यथा 'घ्बनि-कृता वृद्धिः' यह भाष्यकार का कथन असङ्गत हो जायेगा, क्योंकि 'वृद्धि' आदि विकार 'वैखरी' ध्वनि के ही धर्म माने गये हैं।
['जाति' ही वास्तविक 'स्फोट' है]
तत्रापि शक्यत्वस्येव शक्ततावच्छेदिकाया वर्ण-पदवाक्य-निष्ठ-जातेः वाचकत्वम् । तदुक्तम् :अनेक-व्यक्त यभिव्यङ्या जातिः स्फोट इति स्मृता । इति ।
(वाप० १.६३) तस्माद् अष्टविध-स्फोटात्मकः शब्दो वृत्त्याश्रयः । वस्तुतस्तु वाक्यस्फोटो वाक्यजातिस्फोट एव वृत्त्याश्रयः । तत एव लोके अर्थबोध इत्याधुक्तत्वात् । इति सर्व सुत्थम् ।
इति स्फोट-निरूपणम् उन ('पद-स्फोट' तथा 'वाक्य-स्फोटों' में भी (घट, पट आदि अर्थों में रहने वाली घटत्व पटत्व आदि 'जातियों' की) वाच्यता के समान वाचकता में रहने वाली ('घट', 'पट' आदि पद-निष्ठ घट-पदत्व, पट-पदत्व आदि) 'जाति', जो वर्ण, पद तथा वाक्य में रहती है, उसी में (वास्तविक) वाचकता है। इसी (बात) को (भर्तृहरि ने) कहा है
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