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परिभाषा; 'सकर्मक' तथा 'अकर्मक' की निष्कर्षभूत परिभाषा; 'ज्ञा' धातु के अर्थ के विषय में विचार; 'आवरणभङ्ग' अथवा 'विषयता' को 'ज्ञा' धातु का 'फल' नहीं माना जा सकता; 'इष्' धातु का अर्थ; 'पत्' धातु की 'सकर्मकता' तथा 'अकर्मकता' के विषय में विचार; 'कृ' धातु का अर्थ; 'लकारार्थ' के विषय में नैयायिकों का सिद्धान्त; नैयायिकों के प्रथम सिद्धान्त - "लकारों' का अर्थ 'कृति' है"-का खण्डन; नैयायिकों के अनुसार 'लकारों' का अर्थ 'कृति' मानने से उत्पन्न दोषों के निराकरण का एक
और उपाय तथा उसका खण्डन; "नामार्थयोरभेदेनान्वयः' इस न्याय के आधार पर भी 'शतृ' तथा 'शानच्' प्रत्ययों का अर्थ 'कर्ता' नहीं माना जा सकता; 'लकारों' का अर्थ 'कर्ता' न मान कर, केवल 'कृति' मानने पर एक और दोष; नैयायिकों द्वारा स्वीकृत 'याख्यातार्थ में 'धात्वर्थ' विशेषण बनता है'-इस द्वितीय सिद्धान्त का निराकरण; नैयायिकों के तृतीय सिद्धान्त-'शाब्द बोध में प्रथमा विभक्त्यन्त पद का अर्थ प्रमुख होता है'-- के खण्डन की दृष्टि से, उससे पहले, वैयाकरणों के मत की स्थापना; नैयायिकों के सिद्धान्त में दोष; 'पश्य मृगो धावति' इस वाक्य में उपरिप्रदर्शित दोष का पूर्व पक्ष के रूप में समाधान तथा उसका खण्डन।
निपातार्थ-निर्णय
१८५-२४२
'निपातों की अर्थ-द्योतकता का प्रतिपादन; 'द्योतकता' का अभिप्राय; 'उपसर्ग अर्थ के द्योतक हैं तथा निपात अर्थ के वाचक', - नैयायिकों के इस मत का खण्डन; इस प्रसङ्ग में नैयायिकों पर अन्य वैयाकरणों द्वारा किये गये प्राक्षेप; कौण्डभट्ट के आक्षेपों की निस्सारता; 'द्योतक' होने पर भी 'निपात' सार्थक हैं, अनर्थक नहीं; “उपसर्ग अर्थ के द्योतक हैं'- इस सिद्धान्त का प्रतिपादन; उपसर्गों की अर्थ-द्योतकता के विषय में भर्तृहरि का कथन; "इव' सादृश्य अर्थ का वाचक है"-इस नैयायिक-मत का खण्डन; 'इव' के द्योत्य अर्थ के विषय में नागेश का मत; 'पर्युदास न' तथा उसका द्योत्य अर्थ; 'पर्यु दास नत्र' प्रायः समास-युक्त मिलता है; 'प्रसज्यप्रतिषेध' का स्वरूप, 'प्रसज्यप्रतिषेध' के प्रयोगों के अर्थ; बुद्धिगत शब्द ही वाचक है तथा वही वाच्यार्थ भी है; 'घटो न पटः' इस प्रयोग के विषय में विचार तथा उसके सम्बन्ध में नैयायिकों के मत का खण्डन; "एव' निपात के विविध अर्थ; अवधारण के तीन प्रकार; 'एव' के प्रयोग के बिना भी नियम की प्रतीति; प्रसंगत: 'विधि', 'नियम' तथा 'परिसंख्या' के लक्षण और शास्त्रीय उदाहरण ।
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