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व्यंजना-निरूपण
७८-८४
व्यंजना का स्वरूप; वैयाकरण विद्वानों को भी व्यंजना वृत्ति अभीष्ट है; व्यंजना वृत्ति के अधिष्ठान तथा सहायक; 'व्यंजना वृत्ति अनावश्यक है' नैयायिकों के इस मन्तव्य का खण्डन ।
स्फोट-निरूपरण
८५-११२
अभिधा' आदि वृत्तियों का प्राश्रय वर्गों को नहीं माना जा सकता; इस विषय में नैयायिकों का मन्तव्य; नैयायिकों के इन तीनों विकल्पों का खण्डन; नैयायिकों की बात का पतंजलि के कथन से विरोध; वैयाकरणों के मत में वृत्तियों का आश्रय स्फोट तथा चार प्रकार की वाणी-परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी; 'मध्यमा' तथा 'वैखरी' नाद का अन्तर; 'स्फोट' एक एवं अखण्ड है; 'कत्व', 'गत्व', आदि का स्फोट में आभास तथा उसका कारण; दो प्रकार की ध्वनियाँ; 'वैखरी' नाद तथा 'मध्यमा नाद का उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण; 'जाति' ही वास्तविक 'स्फोट' है।
प्राकांक्षादि-विचार
११३ -- १२५
'पाकांक्षा' का स्वरूप; एक दूसरे प्रकार से 'पाकांक्षा' का विवेचन; 'योग्यता' का स्वरूप; योग्यता' के विषय में नैयायिकों का वक्तव्य तथा उसका खण्डन; 'प्रासत्ति' का स्वरूप तथा उसकी 'सहकारिकारणता' के विषय में विचार; 'तात्पर्य' का स्वरूप-विवेचन तथा शाब्द बोध में उसकी हेतुता।
धात्वर्थ-निर्णय
१२६-१८४ धातुओं के अर्थ के विषय में विचार; 'फल' की परिभाषा; 'व्यापार' पद का स्पष्टीकरण तथा धात्वर्थ की परिभाषा में आये 'अनुकूल' शब्द का अभिप्राय; कर्तृवाच्य तथा भाववाच्य में तिङन्त पद क्रिया-प्रधान होता है तथा कर्मवाच्य में 'फल'प्रधान; 'फल' तथा 'व्यापार' दोनों में धातु की पृथक्-पृथक् 'शक्ति' मानने वालों का खण्डन; मीमांसकों के मत --- "धातु' का अर्थ 'फल' है तथा 'प्रत्यय' का अर्थ व्यापार' है" --का खण्डन; मीमांसकों का उपयुक्त मत मानने पर 'सकर्मक', 'अकर्मक' सम्बन्धी व्यवस्था की अनुपपत्ति ; मीमांसकों के मत में अन्य दोषों का प्रदर्शन; क्रिया का स्वरूप; सिद्ध और साध्य की कोण्डभट्ट-सम्मत परिभाषा; 'साध्यता' की वास्तविक परिभाषा; 'अस्' इत्यादि धातुओं की क्रियारूपता; 'सकर्मक' तथा 'अकर्मक' की
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